बेवफा मेरे ही दिल में ये तेरा घर क्यूँ है
जी रहा आज भी आशिक वहीं मर मर क्यूँ है।
वो नहीं जानती रोजा न ही कलमा न नमाँ
ये बता फिर उसी चौखट पे तेरा दर क्यूँ है।
जानते हैं सभी बस प्रेम में बसता है तू
फिर जमीं पर कहीं मस्जिद कहीं मन्दिर क्यूँ है।
तू नहीं साँप न ही साँप का बच्चा है तो
तेरी हर बात में फिर ज़हर सा असर क्य़ूँ है।
एक चट्टान के टुकड़े हैं ये सारे ‘सज्जन’
तब इक कंकड़ इक पत्थर इक शंकर क्यूँ है।
रोज लिख देते हैं हम प्यार पे ग़ज़लें कितनी
हर तरफ़ फिर भी ये नफ़रत का ही मंजर क्यूँ है।
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
जानते हैं सभी बस प्रेम में बसता है तू
जवाब देंहटाएंफिर जमीं पर कहीं मस्जिद कहीं मन्दिर क्यूँ है।
क्या बात है खुबसूरत गज़ल बधाई
bahut achchhi rachana .....badghai
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