उतर आओ फिर धरा पर, छोड़ कर आराम
बैकुंठवासी श्याम!
अब सुदामा कृष्ण के सेवक से भी दुत्कार खाते,
झूठ के दम पर युधिष्टिर अब यहाँ हैं राज्य पाते;
गर्भ में ही मार देते कंस नन्हीं देवियों को,
और अर्जुन से सखा अब कहाँ मिलते हैं किसी को;
प्रेम का बहुरूप धरके,
आगया है काम
देवता डरने लगे हैं देख मानव भक्ति भगवन,
कर्म कोई और करता फल भुगतता दूसरा जन;
योग सस्ता होके अब बाजार में बिकने लगा है,
ज्ञान सारा देह के सुख को बढ़ाने में लगा है;
नये युग को नई गीता,
चाहिए घनश्याम
कौरवों और पांडवों के स्वार्थरत गठबन्धनों से,
हस्तिनापुर कसमसाता और भारत त्रस्त फिर से;
द्रौपदी का चीर खींचा जा रहा हर इक गली में,
धरके लाखों रूप आना ही पड़ेगा इस सदी में;
बोझ कलियुग का तभी,
प्रभु पाएगा सच थाम
धर्मेन्द्र भाई मुझे लगता है कि यह कविता मैने पहले भी कहीं पढ़ी है| शायद आप ने फेसबुक पर पोस्ट की हो| बहुत ही सुंदर कविता है ये|
जवाब देंहटाएंनये युग को नई गीता,
चाहिए घनश्याम
बहुत बहुत मर्मस्पर्शी| बधाई|
व्यथा उभर कर आयी है…………………सुन्दर रचना।
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जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर गीत है … बधाई धर्मेन्द्र जी !