सब देखती और सुनती रहती हैं दीवारें
सारे कुकर्म दीवारों की आड़ में ही किए जाते हैं
और एक दिन इन्हीं कुकर्मों के बोझ से
टूटकर गिर जाती हैं दीवारें
और फिर बनाई जाती हैं नई दीवारें
नए कुकर्मों के लिए;
पता नहीं कब बोलना सीखेंगी ये दीवारें
मगर जिस भी दिन दीवारें बोल उठेंगी
वो दिन दीवारों की आड़ में
सदियों से फलती फूलती
इस सभ्यता
इस व्यवस्था
का आखिरी दिन होगा।
सटीक ....सुन्दर भाव
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति। नवरात्रा की हार्दिक शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंbahut hi satik likha hai aapne...........bahut achchha laga
जवाब देंहटाएंसच कहता हूँ...भाई,
जवाब देंहटाएंआपकी यह रचना ऊपर की अन्य रचनाओं से ज़्यादा पसंद आयी। इसमें आपने समाज की एक गंदगी (कु-कर्म) की ओर सफलतापूर्वक ध्यान खींचा है। यदि कवि ध्यान नहीं खींचेगा, तो समाज के सो जाने का ख़तरा है।
इस कविता में अनुस्यूत विरोध का स्वर प्रभावित करता है।
जवाब देंहटाएंबधाई...!
जवाब देंहटाएंदिनांक 10/03/2013 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
धन्यवाद!
-----------
मैं प्रतीक्षा में खड़ा हूँ....हलचल का रविवारीय विशेषांक.....रचनाकार निहार रंजन जी
अति सुन्दर लिखा है..
जवाब देंहटाएंbahut badhiya....
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लिखा है.
जवाब देंहटाएं