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गुरुवार, 16 सितंबर 2010

कर

आयकर, गृहकर, सम्पत्तिकर, बिक्रीकर,
जलकर,
कितने गिनाऊँ?
कितने सारे रूपये,
कर के रूप में,
हर साल सबसे वसूलती है सरकार,
पर होता क्या है इन रूपयों का,
खेल के मैदानों में कुछ कुर्सियाँ और लग जाती हैं,
सरकारी दफ़्तरों का पुनर्निमाण हो जाता है,
राज्यमार्ग और चौड़े हो जाते हैं,
सरकारी कर्मचारियों की वेतनवृद्धि हो जाती है,
बड़े लोगों के स्विस बैंक खातों में
थोड़ा धन और बढ़ जाता है;
एक चक्र है ये,
जिसमें अमीरों से पैसा लिया जाता है,
और अमीरों को और सुविधाएँ देने में,
खर्च कर दिया जाता है;

गरीबों के लिए,
विदेशों से गेंहू मँगाया जाता है,
जो गोदामों में ही सड़ जाता है;
ईंटों की अस्थायी सड़कें बनाई जाती हैं,
जो बारिश में टूटकर बह जाती हैं;
चापाकल लगाये जाते हैं,
जो गर्मियों में सूख जाते हैं;
जो बचता है,
वो अधिकारियों के,
सफ़ेद और काले भत्तों में खप जाता है;

सरकार अमीरों से धन वसूल तो सकती है,
पर उसे गरीबों तक पहुँचा नहीं सकती;
अब ऐसे में क्या रास्ता बचता है,
बेचारे गरीब के पास?
यही ना कि वो सीधे अमीरों के पास जाए,
और उनसे उनका धन छीन ले;

सबकुछ आइने की तरह साफ है,
फिर भी लोग आश्चर्य करते रहते हैं,
अपराध के बढ़ने पर,
विद्रोह के बढ़ने पर,
राजद्रोह के बढ़ने पर।

2 टिप्‍पणियां:

  1. सबकुछ आइने की तरह साफ है,
    फिर भी लोग आश्चर्य करते रहते हैं,
    अपराध के बढ़ने पर,
    विद्रोह के बढ़ने पर,
    राजद्रोह के बढ़ने पर।


    -न जाने क्यूँ??? :)

    अच्छा यथार्थ दर्शन!

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