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गुरुवार, 5 अगस्त 2010

थोड़ी देर के लिए

मेरी जिन्दगी की सारी व्यस्तताओं,
मुझे अकेला छोड़ दो, थोड़ी देर के लिए,
थोड़े देर अकेले में बैठकर,
मैं उसे याद करना चाहता हूँ,
उसे, उसकी बातों को,
उसके नखरों को, उसकी अदाओं को,
उसकी खुशबू को, उसके भोलेपन को,
उसकी नासमझियों को, उसकी हँसी को,
उसकी उस कातिल मुस्कान को, उसके प्यार को,
उसके आँसुओं को, उसकी तड़प को,
एक क्षण उसके साथ बिताकर मैं,
जैसे सैकड़ों साल जी लेता था,
उसके प्यार की एक बूँद पीकर,
जैसे कई बोतलें पी लेता था,
अब मैं जी कहाँ रहा हूँ,
अब तो ढो रहा हूँ,
जिन्दगी का बोझ,
तय कर रहा हूँ,
जिन्दगी और मौत के बीच का वीरान सफर,
खींच रहा हूँ, जिंदगी की गाड़ी,
मौत की तरफ,
मैं जिन्दा तभी तक हूँ, जब तक मैं व्यस्त हूँ,
पर कभी तो ओ मेरी जिन्दगी की व्यस्तताओं,
मुझे अकेला छोड़ दो,
थोड़ी देर के लिए।

3 टिप्‍पणियां:

  1. जिस दिन व्यस्तताएं नहीं रहेंगी तो ज़िंदगी भी नहीं रहेगी....उहापोह कि स्थिति को बखूबी लिखा है ..

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  2. भाई धर्मेन्द्र जी, सच में व्यस्तताएँ हमें कितनी सारी चीज़ों से जुदा कर देती हैं| अच्छी विवेचना की है आप ने| इसी धरती पर एक अलग पहलू ऐसे भी देखिए:-

    तुम से मिलेंगे - तब - तुम्हारी सुनेंगे|
    फिलहाल, खुद से मिलने को - फ़ुर्सत नहीं है||

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  3. बहुत सही लिखा है आपने . व्यस्त जीवन में हम लगभग खो से गए है ....एकांत की आवश्यकता है ...जीने के लिए

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जो मन में आ रहा है कह डालिए।