अपने जीवन में,
कितने बोझ ढोता रहता है आदमी,
माता पिता के सपनों का बोझ;
समाज की अपेक्षाओं का बोझ;
पत्नी की इच्छाओं का बोझ;
बच्चों के भविष्य का बोझ;
व्यवसाय या नौकरी में,
आगे बढ़ने का बोझ;
अपनी अतृप्त इच्छाओं का बोझ;
अपने घुट-घुटकर मरते हुए सपनों का बोझ;
कितने गिनाऊँ,
हजारों हैं,
और इन सब से मुक्ति मिलती है,
मरने के बाद;
शायद इसीलिए जिन्दा आदमी पानी में डूब जाता है,
मगर उसकी लाश तैरती रहती है।
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
बढिया रचना है....अपने मनोभावो को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं बधाई।
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