मेरे हेडमास्टर की कुर्सी,
पुरानी, मगर बेहद साफ,
घूल का एक कण भी नहीं था उसपर,
शुरू शुरू में तो मैं बहुत डरता था,
उस कुर्सी से,
फिर धीरे धीरे मुझे पता लगा,
कि लकड़ी की उस बूढ़ी कुर्सी में भी दिल है,
और मुझे उस कुर्सी से लगाव होने लगा,
आजकल वो कुर्सी हेडमास्टर साहब के घर में पड़ी हुई है,
उसका एक पाँव टूट गया है,
और आँखों से दिखाई भी नहीं पड़ता,
मोतियाबिन्द के आपरेशन के लिये पैसे नहीं हैं,
एक दिन मैं उस कुर्सी से मिलने चला गया था,
तो सब पता लगा मुझे;
सबसे छुपाकर बीस हजार रूपये देकर आया हूँ,
आपरेशन के लिये,
क्या करूँ, उस कुर्सी का महत्व,
सिर्फ मैं ही समझ सकता हूँ,
वो कुर्सी न होती,
तो मैं न जाने क्या होता।
क्या करूँ, उस कुर्सी का महत्व,
जवाब देंहटाएंसिर्फ मैं ही समझ सकता हूँ,
वो कुर्सी न होती,
तो मैं न जाने क्या होता।
beautiful expression
nice
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा है आपने
जवाब देंहटाएंआप की रचना 23 जुलाई, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.
जवाब देंहटाएंhttp://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका
क्या कहूं, आपकी यह बातें दिल को छुं गई !
जवाब देंहटाएंखूबसूरत अभिव्यक्ति
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