पहाड़ों से लिपटी बर्फ,
जब पिघल कर पानी बन जाती है,
तो मैदानों की ओर भागने लगती है,
और सागर में जाकर खो जाती है,
फिर धीरे धीरे जलती है,
जुदाई की आग में,
भाप बनकर उठती है,
बादल बनकर वापस दौड़ती है,
और भागकर लिपट जाती है,
पहाड़ों से,
दुबारा बर्फ बनकर।
और बेचारा पहाड़,
वो बार बार इस बर्फ को अपने गले से लेता है,
इसे माफ कर देता है, ये जानते हुए भी,
कि जैसे जैसे सूरज की चमकती धूप इसे मिलेगी,
यह पिघलेगी,
और फिर से मुझे छोड़कर चली जाएगी,
क्या यही प्रेम है,
जिससे प्रेम हो उसके सारे गुनाह माफ कर देना,
उसे बार बार फिर से अपना लेना, यह जानते हुए भी,
कि कुछ दिन बाद वह फिर छोड़ कर चला जायेगा।
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