ईश्वर की शक्तियाँ;
अर्न्तधान होना,
रूप बदल लेना,
दुनिया को नष्ट कर देना,
मुर्दे को जीवित कर देना,
अंधे को आँखे दे देना,
लँगड़े को टाँगे लौटा देना,
बीमारों को ठीक कर देना,
आदि आदि,
इनमें से कुछ को,
विज्ञान मानव के हाथों में सौंप चुका है,
और कुछ को आने वाले समय मे सौंप देगा,
क्योंकि ये सारी शक्तियाँ,
द्रव्य और ऊर्जा की अवस्थाओं में परिवर्तन मात्र हैं,
और आने वाले कुछ सौ सालों में,
हम इनपर पूरी तरह विजय प्राप्त कर लेंगे।
क्या होगा तब?
मानव ईश्वर बन जायेगा?
या शायद ईश्वर मर जायेगा?
अब वक्त आ गया है,
कि हम ईश्वर की,
हजारों वर्ष पुरानी परिभाषा को बदल दें,
और एक नई परिभाषा लिखें,
जो शक्तियों के आधार पर ना बनाई गई हो,
जो डर के आधार पर न बनाई गई हो,
एक ऐसे ईश्वर की कल्पना करें,
जो अपनी खुशामद करने पर वरदान ना देता हो,
और अपनी बुराई करने पर दण्ड भी ना देता हो,
जो अपनी बनाई हुई सबसे महान कृति,
यानि मानव,
की बार बार सहायता करने के लिए,
धरती पर ना आता हो,
जो एक जाति विशेष,
को दान देने पर खुश न होता हो,
जिसे यकीन हो अपनी महानतम कृति पर,
कि ब्रह्मांण में फैली अनिश्चिता के बावजूद,
उसकी यह कृति अपना अस्तित्व बनाये रहेगी,
विकसित होती रहेगी,
ईश्वर को पुनः परिभाषित तो करना ही होगा,
अगर ईश्वर को जिन्दा रखना है,
तो हमें ऐसा करना ही होगा।
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
आप बिल्कुल सही कह रहे हैं ।
जवाब देंहटाएं--->>सुप्रसिद्ध साहित्यकार और ब्लागर गिरीश पंकज जी के साक्षात्कार का आखिरी भाग प्रकाशित हो चुका है । एक बार अवश्य पढे>>
अपनी अपनी आस्था और सोच है.
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