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शनिवार, 31 जुलाई 2010

गई जब से मुझे छोड़कर, रूठकर

गई जब से मुझे छोड़कर, रूठकर,
ऐसा कुछ हो गया, तब से सो न सका।

उसकी बातें कभी, उसकी साँसें कभी,
आसमाँ में उमड़ती-घुमड़ती रहीं,
उसकी यादों की बरसात में भीगकर,
आँखें नम तो हुईं पर मैं रो ना सका।

रातें घुटनों के बल पर घिसटतीं रही,
नींद भी यूँ ही करवट बदलती रही,
तीर लगते रहे दर्द के जिस्म पर,
मैं तड़पता रहा, चीख पर ना सका।

मेरी साँसें तो रुक रुक के चलती रहीं,
दिल की धड़कन भी थम थम धड़कती रही,
कोशिशें की बहुत मैंने पर जाने क्यों,
मौत के मुँह में जाकर भी मर न सका।

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

मैं एक कवि हूँ

मैं एक कवि हूँ,

हल्का सा झोंका मुझे बिखेर देता है,
हल्का सा झटका मुझे तोड़ देता है,
टूटकर-बिखरकर मिट्टी में मिल जाता हूँ,
पर न जाने कौन सी शक्ति है,
जो मुझे फिर जोड़ देती है,
और इस तरह हर बार मैं धरती से,
कुछ और जुड़ जाता हूँ,
अपने भीतर अपनी मिट्टी के कुछ और कण पाता हूँ,
यही मेरी नियति है,
क्योंकि मैं एक कवि हूँ।

भीड़ में मेरे आस पास बहुत सारे लोग होते हैं,
पर उनमें से कुछेक से ही मैं परिचित होता हूँ,
पर जब मैं अकेला होता हूँ,
तो मेरे साथ पूरी एक दुनिया होती है,
मेरी कल्पना की दुनिया,
जिस दुनिया के पशु पक्षियों को भी मैं जानता हूँ,
जिस दुनिया के पत्थर भी मुझसे बातें करते हैं,
जिस दुनिया के कण कण की मैं सृष्टि करता हूँ,
क्योंकि मैं एक कवि हूँ।

जिन्हें मैं जानता भी नहीं,
उनका भी दुःख अक्सर मुझे रुला देता है,
मेरे अन्तरतम को हिला देता है,
मैं अक्सर खुद को भूल जाया करता हूँ,
खरीदी हुई सब्जी बाजार में ही छोड़ आया करता हूँ,
अक्सर दोस्तों से अलग अकेले में बैठा करता हूँ,
भीड़ से दूर अकेले में खाया करता हूँ,
अकेले रहना अच्छा लगता है मुझे,
क्योंकि मुझे अपने आप से डर नहीं लगता,
अक्सर अपनी आँखों में आँखें ड़ालकर,
मैं खुद से बातें करता हूँ,
क्योंकि मैं एक कवि हूँ।

बुधवार, 28 जुलाई 2010

धूल

धूल के कणों की एक अलग ही कहानी है

किसी जमाने में गर्व से सीना ताने
सिर ऊँचा उठाए खड़े
बड़े बड़े पहाड़ थे ये

प्रकृति को चुनौती देते हुए
प्रकृति की शक्तियों से लड़ते हुए
अपने आप को अजेय समझते थे

पर प्रकृति चुपचाप अपने काम में लगी रही
आहिस्ता आहिस्ता इन्हें काटती रही
तोड़ती रही
धीरे धीरे ये धूल के कण बन गए
और पाँवो की ठोकरों से इधर उधर बिखरने लगे

पर नए पहाड़ों ने इनसे कुछ नहीं सीखा
वो आज भी सीना ताने
प्रकृति को चुनौती देते
सर उठाए खड़े हैं

प्रकृति लगी हुई है
अपने काम में
आहिस्ता आहिस्ता

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

रिक्शा

एक रिक्शा था,
जो मुझे बचपन में स्कूल ले जाया करता था,
रोज सुबह वक्तपर आता था,
सीटी बजाता था,
और मैं दौड़कर उसपर चढ़ जाया करता था,
अच्छा लगता था, दोस्तों के साथ,
उस रिक्शे पर बैठकर स्कूल जाना,
कभी कभी जब वो खराब हो जाता था,
तो पापा छोड़ने जाते थे,
पर पापा के साथ जाने में वो मजा नहीं आता था,
एक अजीब सा रिश्ता बन गया था उस रिक्शे से;

वो रिक्शा अब भी आता है कभी कभी मेरे घर,
पर मैं तो अक्सर परदेश में रहता हूँ,
जब मैं घर जाता हूँ,
तो उसको पता नहीं होता कि मैं आया हूँ,
और जब वो आता है तो मैं परदेश में होता हूँ,
लोग कहते हैं वो कुछ माँगने आता होगा,
लोग नहीं समझ सकते,
एक बच्चे और उसके रिक्शे का रिश्ता,
इस बार मैं कुछ नये कपड़े,
घर पर रख आया हूँ,
घरवालों से कहकर,
वो आये तो दे देना,
क्या करूँ,
जिन्दगी की भागदौड़ में,
मैं इतना ही कर सकता हूँ,
तुम्हारे लिये,
कभी अगर किस्मत ने साथ दिया,
तो मुलाकात होगी।

धर्म और जाति

धर्म और जाति अब हमे कुछ नहीं दे सकते,
सिवाय धार्मिक दंगों,
आतंकवाद और प्रेमियों की हत्या के,
धर्म ने जो कुछ देना था दे चुका,
जाति ने जो कुछ देना थी दे चुकी,
अब कुछ नहीं बचा इनके पास देने को,
ये अब समय के अनुसार नहीं चल पाते,
अब इनमें परिवर्तन नहीं होता,
ये तेजी से बदलते युग के साथ नहीं बदल पाते,
ये सड़ने लगे हैं अब,
अब इनसे छुटकारा पाने का वक्त आ गया है,
आओ कुछ को जला दिया जाये,
कुछ को दफना दिया जाय,
इनकी चिता पर फूल रखकर,
इन्हें अन्तिम प्रणाम किया जाये,
इनकी कब्र पर माला रखकर अन्तिम विदा दी जाये,
अब हमें ईश्वर से जुड़ने के लिए,
ना धर्म की आवश्यकता है,
ना ही समाज को चलाने के लिए जाति की।

सोमवार, 26 जुलाई 2010

चट्टान का टुकड़ा

पहाड़ से टूटकर चट्टान का एक बड़ा टुकड़ा,
नदी में जा गिरा,
नदी की धारा उसे तब तक पटकती रही,
जब तक कि उसके टुकड़े टुकड़े नहीं हो गये,
वो छोटे छोटे टुकड़े धारा में बहते रहे,
चट्टानों से टकराते रहे,
दर्द से चीखते रहे,
पानी को कोसते रहे और गोल गोल हो गये,
फिर नदी ने उन्हें एक किनारे डाल दिया,
दूसरे दिन नदी किनारे से एक बच्चा गुजरा,
उसे वो चिकने, रंग बिरंगे टुकड़े अच्छे लगे,
उन्हें उठा कर घर ले गया,
उसकी माँ ने उन पत्थरों को देखा,
और उन्हें उठाकर पूजाघर में रख दिया,
अब वो पत्थर रोज पूजे जाते हैं,
क्योंकि जो उन्होंने सहा है,
वह सहकर बहुत कम पत्थर,
पूजाघर तक पहुँच पाते हैं,
ज्यादातर तो चूर चूर होकर,
मिट्टी में मिल जाते हैं।

शनिवार, 24 जुलाई 2010

एक बदली

एक बदली,
पानी से लबालब भरी हुई,
समुन्दर के घर से भागकर,
पहाड़ों के पास पहुँच गई,
हरे भरे पहाड़ों को देखकर,
उसका मन ललचा उठा,
वो उन पर चढ़ती ही गई,
आगे बढ़ती ही गई,
फिर अचानक उसने सोचा,
अरे मैं तो बहुत दूर आ गई,
अब लौटना चाहिए,
उसने पलट कर देखा तो,
हर तरफ उसे पहाड़ ही पहाड़ नजर आये,
वह भटकती रही, भटकती रही,
और पहाड़ कसते रहे अपना शिकंजा,
कब तक लड़ती वो शक्तिशाली पहाड़ों से,
आखिरकार वो बरस ही पड़ी,
और मिट गई,
पर बाकी की बदलियों ने इससे कोई सबक नहीं लिया,
वो अब भी ललचाकर पहाड़ों में आती हैं,
और अपना अस्तित्व मिटाकर खो जाती हैं।

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

आँवले का पेड़

एक आँवले का पेड़ था,
फलों से लदा हुआ,
ड़ालियाँ झुकी हुईं,
लोग आये, पेड़ की बहुत तारीफ की,
और प्यार से हाथ बढ़ाकर,
बड़े बड़े आँवले तोड़े,
और खाकर चले गये,

अगले साल मौसम की मार पड़ी,
और उस पेड़ पर दो-चार आँवले ही लग पाये,
वो भी एकदम ऊपर की डालों पर,
लोग आये, पेड़ को गालियाँ दीं,
पत्थर मार कर आँवले तोड़े,
और खाकर चले गये,

मैंने पूछा, पेड़ तुम्हें बुरा नहीं लगा,
लोगों की बातों का;
पेड़ बोला, लोगों का क्या है,
लोग तो मौसम के साथ बदलते हैं।

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

मधुमक्खी

वो मधुमक्खी,
जिसके छत्ते में पत्थर मारकर,
एक दिन मैंने उकसाया था,
बदले में उसने मुझे,
अपने डंकों से नहलाया था,
बचने की कोशिश तो बहुत की थी मैंने,
पर कौन बचा है आज तक ऐसे डंकों से,

फिर एक दिन अचानक,
छत्ते में कोई नहीं मिला मुझे,
सारा शहद सूख गया था,
छत्ता उजाड़ हो गया था,
वो छत्ता तो आज भी वहीं है,
पर जब कभी मैं उस राह से गुजरता हूँ,
तो मुझे आज भी महसूस होता है,
उसके डंकों का दर्द,
और याद आ जाती है मुझे,
वो मधुमक्खी।

बुधवार, 21 जुलाई 2010

हेडमास्टर की कुर्सी

मेरे हेडमास्टर की कुर्सी,
पुरानी, मगर बेहद साफ,
घूल का एक कण भी नहीं था उसपर,
शुरू शुरू में तो मैं बहुत डरता था,
उस कुर्सी से,
फिर धीरे धीरे मुझे पता लगा,
कि लकड़ी की उस बूढ़ी कुर्सी में भी दिल है,
और मुझे उस कुर्सी से लगाव होने लगा,
आजकल वो कुर्सी हेडमास्टर साहब के घर में पड़ी हुई है,
उसका एक पाँव टूट गया है,
और आँखों से दिखाई भी नहीं पड़ता,
मोतियाबिन्द के आपरेशन के लिये पैसे नहीं हैं,
एक दिन मैं उस कुर्सी से मिलने चला गया था,
तो सब पता लगा मुझे;
सबसे छुपाकर बीस हजार रूपये देकर आया हूँ,
आपरेशन के लिये,
क्या करूँ, उस कुर्सी का महत्व,
सिर्फ मैं ही समझ सकता हूँ,
वो कुर्सी न होती,
तो मैं न जाने क्या होता।

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

दादी

एक गाय है,
वो जब तक बछड़े पैदा करती थी,
दूध देती थी,
तब तक उसकी पूजा होती थी,
उसके गोबर से आँगन लीपा जाता था,
उसके दूध से भगवान को भोग लगाया जाता था,
लोग उसके चरण छूकर आशीर्वाद लेते थे,

पर अब वह बूढ़ी हो गयी है,
उसे गोशाला के छोटे से,
गंदे से, कमरे में भेज दिया गया है,
कभी बछड़ों पर प्यार उमड़ता है,
और जोर से उन्हें पुकारती है,
तो डाँट दी जाती है,
बचा खुचा खाना उसके आगे डाल दिया जाता है,
वो खाकर चुपचाप पड़ी रहती है,
जवानी के दिन याद करते हुए,
मौत के इंतजार में।

सोमवार, 19 जुलाई 2010

दर्द क्या है

दर्द क्या है?

शारीरिक दर्द क्या है?
शरीर के विभिन्न हिस्सों से निकलने वाली,
कम ऊर्जा की विद्युत धाराएँ,
जो तन्त्रिकाओं के रास्ते दिमाग तक पहुँचती हैं,
और दिमाग इन तरंगों का मिलान,
अपने पास पहले से उपस्थित सूचनाओं से करके,
हमें अहसास दिलाता है,
कि ये तो दर्द की विद्युत धाराएँ हैं।

मानसिक दर्द क्या है,
दिमाग के एक हिस्से से निकलने वाली विद्युत तरंगें,
जिस हिस्से में याददाश्त होती है,
और ये तरंगें जब दिमाग के,
दर्द महसूस करने वाले हिस्से में पहुँचती हैं,
तो फिर एक बार सूचनाओं का मिलान होता है,
और दर्द की अनुभूति होती है,
इस दर्द की कोई सीमा नहीं होती,
क्योंकि आदमी का दिमाग,
असीमित विद्युत उर्जा उत्पन्न कर सकता है।

आजकल मैं कोशिश कर रहा हूँ,
दिमाग में उपस्थित पूर्व सूचनाएँ नष्ट करने की,
और इसका एक आसान रास्ता है,
सूचनाओं के ऊपर दूसरी सूचनाएँ भर देना,
आजकल मैं खूब चलचित्र देख रहा हूँ,
खूब कविताएँ पढ़ रहा हूँ,
उपन्यासों की तो बस पूछिये ही मत,
और विज्ञान की उन समीकरणों को भी,
समझने की कोशिश कर रहा हूँ,
जिनसे मैं हमेशा ही,
डरता था।

जल्द ही मैं अपने दिमाग में,
इतनी सूचनाएँ भर दूँगा,
कि उसकी यादें या तो मिट जाएँगी,
या इतने गहरे दब जाएँगी कि दिमाग को,
ढूँढने पर भी नहीं मिलेंगी,
और तब मैं मुक्ति पा सकूँगा,
इस बेरहम दर्द से।

प्रयोग

प्रयोग कभी अच्छा या बुरा नहीं होता,
अच्छा या बुरा प्रयोग का परिणाम होता है,
और परिणाम का पता तब तक नहीं लग सकता,
जब तक कि प्रयोग न किया जाय।

तो प्रयोग से मत डरिये,
बस इतना प्रयास कीजिए,
कि यदि परिणाम बुरा हो,
तो उसका असर कम से कम रहे,
और ऐसा प्रयोग फिर न होने पाये।

रविवार, 18 जुलाई 2010

रंगीन चमकीली चीजें

रंगीन चमकीली चीजें,
प्रकाश के उन रंगों को,
जो उनके जैसे नहीं होते,
सोख लेती हैं,
और उनकी ऊर्जा से अपने रंग बनाती हैं।
और हम समझते हैं कि ये उनके अपने रंग हैं,
जिन्हें हम रंगीन वस्तुएँ कहते हैं,
वे दरअसल दूसरे रंगों की हत्यारी होती हैं।

केवल आइना ही है,
जो किसी भी रंग की ऊर्जा का इस्तेमाल,
अपने लिए नहीं करता,
सारे रंगों को जस का तस वापस लौटा देता है,
इसीलिए तो आइना हमें सच दिखाता है,
बाकी सारी वस्तुएँ,
केवल रंगबिरंगा झूठ बोलती हैं,
जो वस्तु जितनी ज्यादा चमकीली होती है,
वो उतना ही बड़ा झूठ बोल रही होती है।

शनिवार, 17 जुलाई 2010

कवि की कल्पना

कवि की कल्पना,
चीनी को भी घोलती है,
नमक को भी घोलती है,
चीनी और नमक में फर्क नहीं करती,
पानी की तरह होती है,
कवि की कल्पना।

चीनी की अधिक मीठास को कम कर देती है,
नमक को कम नमकीन बना देती है,
नींबू की अत्याधिक खटास को भी कम कर देती है,
शर्बत और शिंकजी में बदलकर,
इन्हें पीने लायक बना देती है,
कवि की कल्पना।

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

अबे कमल!

अबे कमल! सुन, क्यों खुद पर इतना इतराता है;
रंग, रूप तू कीचड़ के शोषण से पाता है।

कीचड़ का तू शोषण करता,
कीचड़ का खाता तू माँस;
बुझती कीचड़ के लोहू से
है तेरी रंगों की प्यास।
पर तू खिलने को कीचड़ के बाहर आता है;
तेरा कीचड़ से केवल मतलब का नाता है।

तू खुश रहता वहाँ जहाँ,
कीचड़ होता है पाँव दलित;
देवों के मस्तक पर चढ़कर
समझे कीचड़ को कुत्सित।
बेदर्दी से जब कीचड़ को कुचला जाता है,
कह क्या तुझको दर्द पंक का छू भी पाता है?

फेंक दिया जाता बाहर,
जब तू है मुरझाने लगता;
पड़ा धूल में और धूप में,
घुट घुट कर मरने लगता।
ऐसे में कीचड़ ही आकर गले लगाता है,
क्या तुझको निःस्वार्थ प्रेम भी पिघला पाता है?

बुधवार, 14 जुलाई 2010

तूफ़ान

जो अपनी मिट्टी से जितनी गहराई से जुड़ा होता है,
उतनी ही आसानी से तूफ़ानों का मुकाबला कर लेता है,
क्योंकि तूफ़ान का वेग धरती पर शून्य होता है,
और उँचाई बढ़ने के साथ बढ़ता जाता है।

जो अपनी धरती से जुड़े बिना,
ऊँचा उठता है,
तूफ़ानों का मुकाबला नहीं कर पाता,
तूफ़ान उसे बड़ी आसानी से,
तोड़ कर बिखेर देता है।

तूफ़ान का मुकाबला करने के लिए,
जो जितना ऊपर उठे,
उसे अपनी मिट्टी से भी,
उतनी ही गहराई से जुड़ा होना चाहिए,
इससे मिट्टी का भी भला होता है,
और जुड़ने वाले का भी।

सोमवार, 12 जुलाई 2010

पत्थर

हम पत्थर नहीं पूजते,
हम पूजते हैं उसकी जिजीविषा को,
उसकी सहनशक्ति को,
उसके अदम्य साहस को,
उसकी इच्छाशक्ति को,
हर मौसम में जो एक सा बना रहता है,
न पिघलता है, न जलता है, न जमता है,
न जाने कितनी बार इसको तोड़ा गया है,
घिसा गया है,
पर इसके मुँह से आह तक नहीं निकली,
सब कुछ सहा है इसने,
इसको कितना भी कोस लो,
बुरा नहीं मानता,
पलटकर वार नहीं करता,
पत्थर ही धरती पर,
ईश्वर के सबसे ज्यादा गुण रखता है,
इसीलिए तो हम इसे पूजते हैं।

रविवार, 11 जुलाई 2010

कृष्ण विवर

धर्मान्धता वह कृष्ण विवर है,
जिसमें बहुत सारा अन्धविश्वास का द्रव्य,
मस्तिष्क की थोड़ी सी जगह में इकट्ठा हो जाता है,
और परिणाम यह होता है,
कि प्रेम, दया, ममता की प्रकाश-किरणें भी,
इस कृष्ण विवर से बाहर नहीं निकल पातीं,
और जो भी इस कृष्ण विवर के सम्पर्क में आता है,
वह भी इसके भीतर खिंचकर,
कृष्ण विवर का एक हिस्सा बन जाता है,
इससे बचने का एक ही रास्ता है,
न तो इसके पास जाइये,
और न ही इसे अपने पास आने दीजिए।

शनिवार, 10 जुलाई 2010

आजकल ईमानदारी बढ़ती जा रही है

आजकल ईमानदारी बढ़ती जा रही है,
क्योंकि जो बेईमानी सब करने लगते हैं,
करने वाले भी और पकड़ने वाले भी,
वो सिस्टम में आ जाती है,
उसमें पकड़े जाने का डर नहीं होता,
और धीरे धीरे हमारी आत्मा भी,
मानने लगती है,
कि वो बेईमानी नहीं है;
और अंतरात्मा की आवाज़ गलत नहीं होती,
ऐसा ज्ञानी लोग कह गये हैं;
तो भाइयों आजकल,
ईमानदारी का दायरा बड़ा होता जा रहा है,
क्योंकि ईमानदारी की नई परिभाषाएँ बन रही हैं,
और बेईमानी का घटता जा रहा है,
तो जल्दी ही,
वह घड़ी आएगी,
जब बेईमानी,
दुनिया से पूरी तरह,
समाप्त हो जाएगी।

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

समय

काश! मैं तुम्हारे साथ प्रकाश की गति से चल सकता,
तो वह एक पल,
जब तुमने मेरी आँखों में झाँका था,
आज भी वहीं थमा होता।

काश! मेरे प्यार में,
कृष्ण विवर जैसा आकर्षण होता,
तो बहता समय आज भी वहीं ठहरा होता,
मैं तुम्हारी आँखों में खुद को देखता रहता,
और जब तक मेरी पलकें झपकतीं,
समय का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता,
और हमारा अस्तित्व मिलकर,
आदि ऊर्जा में बदल जाता,
फिर से सृष्टि का निर्माण करने के लिए।

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

सड़कें

पहाड़ों की सड़कें,
आगे बढ़ती हैं,
बलखा बलखा कर;
पहाड़ों की खूबसूरती का आनन्द लेती हैं,
मुड़ मुड़ कर;
रास्ते में खड़े पेड़ उन्हें सलाम करते हैं,
झुक झुक कर;
बीच बीच में कुछेक गड्ढे जरूर होते हैं उनमें;
पर वो जाकर खत्म होती हैं देश के उन कोनों में,
जहाँ के लोगों की वो जीवन रेखा हैं।

शहरों की सड़कें चमकदार होती हैं,
एक दम सपाट,
मगर पेड़ तो कहीं कहीं ही दिखते हैं उन्हें,
वो भी गर्व से सीना ताने,
सड़कों की तरफ तो देखते भी नहीं वो,
शहर की सड़कें मुड़ कर पीछे नहीं देखतीं,
बस आगे ही बढ़ती जाती हैं,
किसी बड़ी सड़क में मिलकर,
अपना अस्तित्व खो देने के लिए।

बुधवार, 7 जुलाई 2010

भूकम्प

कौन कहता है जिन्दगी में भूकम्प कभी कभी आते हैं,
हर रात मैं सामना करता हूँ,
एक भूकम्प का,
हर रात तुम्हारी यादों के भूकम्प से,
मेरे तन-मन का कोना कोना हिल जाता है,
मेरा कोई न कोई हिस्सा रोज टूट जाता है,
विज्ञान कहता है,
भूकम्प में जो जितना अधिक दृढ़ होता है,
उतनी ही जल्दी टूट जाता है,
काश! कि मैंने भी थोड़ी सी हिम्मत,
थोड़ी सी दृढ़ता दिखाई होती,
तो अगर तुम न भी मिलतीं तो भी,
एक ही बार में टूटकर बिखर गया होता,
कम से कम ये रोज रोज का दर्द तो न झेलता,
शायद ये मेरे समझौतों की,
मेरे झुकने की सजा है,
कि मैं थोड़ा थोड़ा करके रोज टूट रहा हूँ,
और जाने कब तक मैं यूँ ही,
तिल तिल करके टूटता रहूँगा।

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

पहाड़ों से लिपटी बर्फ

पहाड़ों से लिपटी बर्फ,
जब पिघल कर पानी बन जाती है,
तो मैदानों की ओर भागने लगती है,
और सागर में जाकर खो जाती है,
फिर धीरे धीरे जलती है,
जुदाई की आग में,
भाप बनकर उठती है,
बादल बनकर वापस दौड़ती है,
और भागकर लिपट जाती है,
पहाड़ों से,
दुबारा बर्फ बनकर।
और बेचारा पहाड़,
वो बार बार इस बर्फ को अपने गले से लेता है,
इसे माफ कर देता है, ये जानते हुए भी,
कि जैसे जैसे सूरज की चमकती धूप इसे मिलेगी,
यह पिघलेगी,
और फिर से मुझे छोड़कर चली जाएगी,
क्या यही प्रेम है,
जिससे प्रेम हो उसके सारे गुनाह माफ कर देना,
उसे बार बार फिर से अपना लेना, यह जानते हुए भी,
कि कुछ दिन बाद वह फिर छोड़ कर चला जायेगा।

सोमवार, 5 जुलाई 2010

बड़ा मुश्किल है

बड़ा मुश्किल है,
तुम पर कविता लिखना,
विज्ञान की प्रयोगशालाओं में,
कविता कहाँ बनती है?

परखनलियों में,
अम्लों में,
क्षारों में,
रासायनिक अभिक्रियाओं में,
कविता कहाँ बनती है?

तरह तरह की गैसों की दुर्गन्ध में,
भावनाहीन प्रयोगों में,
कविता कहाँ बनती है?

पर क्या करूँ मैं,
उन्हीं निर्जीव प्रयोगशालाओं में,
तो बिखरी पड़ी हैं तुम्हारी यादें,
तुम्हारे हाथ की छुवन,
जैसे अम्ल छू गया हो शरीर से,
आज भी सिहर उठता है मेरे हाथ का वह भाग,
तुम्हारी खनकती हँसी,
जैसे बीकर गिरकर टूट गया हो मेरे हाथ से,
तुम्हारी साँसों की आवृत्ति से,
मेरी साँसों का बढ़ता आयाम,
हमारे प्राणों का अनुनाद,
हमारी आँखों की क्रिया प्रतिक्रिया,
आँखों की अभिक्रियाओं से बढ़ता तापमान,
कहाँ से लाऊँ मैं उपमान,
वैज्ञानिक उपमानों से कहाँ बनती है कविता?

लगता था जैसे हमारे शरीरों के बीच का गुरुत्वाकर्षण,
किसी दूसरे ही नियम का पालन करता है,
कोई और ही सूत्र लगता है,
इस गुरुत्वाकर्षण की गणना करने हेतु,
जो शायद अभी खोजा ही नहीं गया है,
और शायद कभी खोजा जाएगा भी नहीं।

कुछ चीजें ना ही खोजी जाएँ तो अच्छा है,
कुछ कविताएँ ना ही लिखी जाएँ तो अच्छा है,
और कुछ कहानियाँ,
अधूरी ही रह जाएँ तो अच्छा है।

रविवार, 4 जुलाई 2010

ईश्वर

ईश्वर की शक्तियाँ;
अर्न्तधान होना,
रूप बदल लेना,
दुनिया को नष्ट कर देना,
मुर्दे को जीवित कर देना,
अंधे को आँखे दे देना,
लँगड़े को टाँगे लौटा देना,
बीमारों को ठीक कर देना,
आदि आदि,
इनमें से कुछ को,
विज्ञान मानव के हाथों में सौंप चुका है,
और कुछ को आने वाले समय मे सौंप देगा,
क्योंकि ये सारी शक्तियाँ,
द्रव्य और ऊर्जा की अवस्थाओं में परिवर्तन मात्र हैं,
और आने वाले कुछ सौ सालों में,
हम इनपर पूरी तरह विजय प्राप्त कर लेंगे।

क्या होगा तब?
मानव ईश्वर बन जायेगा?
या शायद ईश्वर मर जायेगा?
अब वक्त आ गया है,
कि हम ईश्वर की,
हजारों वर्ष पुरानी परिभाषा को बदल दें,
और एक नई परिभाषा लिखें,
जो शक्तियों के आधार पर ना बनाई गई हो,
जो डर के आधार पर न बनाई गई हो,
एक ऐसे ईश्वर की कल्पना करें,
जो अपनी खुशामद करने पर वरदान ना देता हो,
और अपनी बुराई करने पर दण्ड भी ना देता हो,
जो अपनी बनाई हुई सबसे महान कृति,
यानि मानव,
की बार बार सहायता करने के लिए,
धरती पर ना आता हो,
जो एक जाति विशेष,
को दान देने पर खुश न होता हो,

जिसे यकीन हो अपनी महानतम कृति पर,
कि ब्रह्मांण में फैली अनिश्चिता के बावजूद,
उसकी यह कृति अपना अस्तित्व बनाये रहेगी,
विकसित होती रहेगी,

ईश्वर को पुनः परिभाषित तो करना ही होगा,
अगर ईश्वर को जिन्दा रखना है,
तो हमें ऐसा करना ही होगा।

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

बर्फ

बर्फ गिरती है तो कितना अच्छा लगता है,
उन लोगों को,
जो वातानुकूलित गाड़ियों से आते हैं,
और गर्म कमरों में घुस जाते हैं,
फिर निकलते हैं गर्म कपड़े पहनकर,
खेलने के लिए बर्फ के गोले बना बनाकर,
गर्म धूप में,

कोई ये नहीं जानता,
कि उस पर क्या बीतती है,
जो एक छोटी सी पत्थरों से बनी कोठरी में,
जिसकी छत लोहे की पुरानी चद्दरों से ढकी होती है,
गलती हुई बर्फ के कारण,
गिरते हुए तापमान में,
एक कम्बल के अन्दर,
रात भर ठण्ड से काँपता रहता है,
दिन भर के काम से थका होने के कारण,
नींद तो आती है,
पर अचानक कम्बल के एक तरफ से,
थोड़ा उठ जाने से,
लगने वाली ठण्ड की वजह से,
नींद खुल जाती है,
सारे अंगों को कम्बल से ढककर,
वह फिर सोने की कोशिश करने लगता है,
उस बर्फ को कोसते हुए,
जिसे सड़कों पर से हटाते हटाते,
दिन में उसके हाथ पाँव सुन्न हो गये थे,
ताकि वातानुकूलित गाड़ियों को आने जाने का,
रास्ता मिल सके।