पृष्ठ

शुक्रवार, 25 जून 2010

बुरा जो ढूँढन मैं चला

मैं भी कबीर दास की तरह बुरा ढूँढने चला था,
मुझे तो एक से एक बुरे मिले,
हर जाति के, हर रंग के, हर भाषा के, हर धर्म के,
मुझमें भी कुछ कम बुराइयाँ नहीं मिलीं,
पर मैं सबसे बुरा हूँ,
मुझे ऐसा नहीं लगा,
आखिर क्या बदल गया कबीर के जमाने से,
आज के जमाने तक,
इंसान, युग या बुरे की परिभाषा?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

जो मन में आ रहा है कह डालिए।