मैं भी कबीर दास की तरह बुरा ढूँढने चला था,
मुझे तो एक से एक बुरे मिले,
हर जाति के, हर रंग के, हर भाषा के, हर धर्म के,
मुझमें भी कुछ कम बुराइयाँ नहीं मिलीं,
पर मैं सबसे बुरा हूँ,
मुझे ऐसा नहीं लगा,
आखिर क्या बदल गया कबीर के जमाने से,
आज के जमाने तक,
इंसान, युग या बुरे की परिभाषा?
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
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