कितनी अजीब बात है,
जो सड़क सबको घर पहुँचाती है,
उसका कोई घर नहीं होता।
जिस सागर जल से है,
जगत का जल चक्र चलता,
उसका पानी पीने लायक नहीं होता।
जिस बादल के पानी से,
धरती पर हरियाली फैल जाती है,
उसका खुद का सारा शरीर काला होता है।
जो धरती सबके पेट की आग बुझाती है,
उसके पेट की आग न कभी बुझी है,
न कभी बुझ पाएगी।
जो गाँधीजी राष्ट्र पिता थे,
वो कभी एक अच्छे पिता नहीं बन पाये।
ऐसा क्यों होता है कि सारे बड़े बड़े,
दूसरों के लिए मरने वाले,
मिटने वाले लोग,
अपना ही घर नहीं बना पाते,
अपने घर के लोगों को खुश नहीं रख पाते,
अपने ही अन्तर की आग नहीं बुझा पाते,
अपनी ही आत्मा की शांति तलाश नहीं कर पाते।
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
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