कविता वाचक्नवी जी ने एक कविता कार्यशाला का आयोजन किया था,
जिसमें जल के ऊपर छलांग लगाते एक बाघ पर कविता लिखनी थी।
उसमें मैंने यह गीत लिखा।
इस कार्यशाला के बारे में विस्तृत चर्चा आप नीचे दी गई कड़ी पर देख सकते हैं।
http://www.srijangatha.com/bloggatha24_2k10
जमकर आज नहायेगा ये।
जंगल में तो लगी आग है,
जान बचा कर भगा बाघ है,
मछली संग बतियायेगा ये,
जमकर आज नहायेगा ये।
बहुत दिनों से ढूँढ रह था,
पानी का ना कहीं पता था,
गोते आज लगायेगा ये,
जमकर आज नहायेगा ये।
बाघिन बोली थी गुस्साकर,
गड्ढे में मुँह आओ धोकर,
तन-मन धोकर जायेगा ये,
जमकर आज नहायेगा ये।
फिर जाने कब पाये पानी,
जाने कब तक है जिन्दगानी,
रो जंगल में जायेगा ये,
जमकर आज नहायेगा ये।
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।