एक मछली की तरह,
सारी जिन्दगी वो उसके प्रेम-जल से,
प्यास बुझाने की कोशिश करती रही,
पर उसकी प्यास नहीं बुझी,
कैसे बुझती,
वह प्रेम-जल,
कभी मछली के खून तक पहुँचा ही नहीं,
वो तो मौका मिलते ही,
पानी की तरह उसके गलफड़ों से निकलकर,
भागता रहा,
दूसरी मछलियों की तरफ।
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
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