एक मजदूर,
जो दिन भर काम करता है,
चिलचिलाती धूप में,
कँपकँपाती ठंढ में,
जान की बाजी लगाकर,
वो पाता है महीने के पाँच हजार;
दिन भर वातानुकूलित कमरे में बैठकर,
थोड़ी सी स्याही,
कलम की,
और थोड़ी प्रिन्टर की,
खर्च करने वाला प्रबन्धक,
पाता है महीने का दो लाख,
ये कैसा सिस्टम है?
कभी बदलेगा भी ये?
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