एक मजदूर,
जो दिन भर काम करता है,
चिलचिलाती धूप में,
कँपकँपाती ठंढ में,
जान की बाजी लगाकर,
वो पाता है महीने के पाँच हजार;
दिन भर वातानुकूलित कमरे में बैठकर,
थोड़ी सी स्याही,
कलम की,
और थोड़ी प्रिन्टर की,
खर्च करने वाला प्रबन्धक,
पाता है महीने का दो लाख,
ये कैसा सिस्टम है?
कभी बदलेगा भी ये?
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
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