फट गया दिल एक बादल का।
प्यार का मृदु स्वप्न लेकर,
छोड़ आया था वो सागर,
भटकता था जाने कब से,
पूछता था यही सब से;
कहाँ वह थल, जहाँ कर
लूँ अपना दिल हलका।
सब ये कहते थे बढ़ा चल,
वीर तू पर्वत चढ़ा चल,
जगत में निज नाम कर तू,
वीरता का काम कर तू;
प्रेम के मत फेर पड़ तू,
प्यार तो है नाम बस छल का।
तभी उसको दिखी चोटी,
प्रीति उसके हृदय लौटी,
श्वेत हिम से वो ढकी थी,
प्रेम रस से भी छकी थी;
राह रोकी तभी गिरि ने,
कर प्रदर्शन बाहु के बल का।
लड़ा गिरि से बहुत बादल,
मगर वो जल से भरा था,
तिस पे उतने पहुँच ऊपर,
अधमरा सा हो चला था;
दर्द इतना बढ़ गया,
वह फाड़ दिल छलका।
गाँव कितने बह गये फिर,
कितने ही घर ढह गये फिर,
दोष देते लोग, भगवन!
क्यों किया यह मृत्यु नर्तन?
मैं समझ ना पा रहा,
यह दोष था किसका।
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