यूँ ही बेध्यानी में,
गुलाब की पंखुड़ी होठों में दबा ली थी,
तब पता लगा,
लोग कितनी गलत उपमा देते हैं,
कहाँ वो ठंढी, नीरस, पंखुड़ी,
कहाँ तुम्हारे वो गर्म, रसभरे होंठ,
यूँ ही एक दिन,
चाँद को ध्यान से देख लिया था,
तब जाकर पता लगा,
कि मैं कितना गलत कहता था,
कहाँ वो दागदार, निर्जन चाँद,
कहाँ तुम्हारा वो बेदाग, जीवंत चेहरा,
यूँ ही एक दिन,
चंदन का पेड़ दिख गया था,
तब पता चला, मैं कितना गलत सोचता था,
कहाँ तुम्हारा वो रेशमी, बलखाता बदन,
कहाँ ये साँपों से लिपटा, जड़, चन्दन।
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
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