मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।
जिसको मैंने समझ देवता,
बचपन से था निसिदिन पूजा,
यूँ ही अगर अचानक निकले,
वो राक्षस से भी बदतर;
मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।
ये धर्म-स्वर्ग, ये रीति-रिवाज,
पाप-पूण्य, ये नियम-समाज,
जब एक समय की ठोकर से,
जायें सारे विश्वास बिखर;
मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।
सारे जीवन का श्रम देकर,
जो एक बनाया मैंने घर,
वह तनिक हवा के झोंके से,
हो जाता है गर तितर-बितर;
मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।
प्रथम बार चाहा दिल की,
भीतरी तहों से जिसे टूटकर,
वह निकले मूर्ति सजीव,
वासना की हे मेरे देव अगर,
मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
जो मन में आ रहा है कह डालिए।