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रविवार, 22 नवंबर 2009

ऐ ख़बर बेख़बर!

ऐ ख़बर बेख़बर!

 

बुधिया लुटती रही, फुलवा घुटती रही,

तू सिनेमा, सितारों में उलझी रही,

जाके लोटी तु मंत्री के, नेता के घर,

क्या कहूँ है गिरी आज तू किस कदर;

ऐ ख़बर बेख़बर!

 

सच को समझा नहीं, सच को जाना नहीं,

झूठ को झूठ भी तूने माना नहीं,

जो बिकी, है बनी, आज वो ही खबर,

है टँगा सत्य झूठों की दीवार पर;

ऐ ख़बर बेख़बर!

 

भूत प्रेतों को दिन भर दिखाती रही,

लोगों का तू भविष्यत बताती रही,

आम लोगों पे क्या गुजरी है, आज, पर,

ये न आया तुझे, है कभी भी नजर;

ऐ ख़बर बेख़बर!

 

तू थी खोजी कभी, आज मदहोश है,

थी कभी साहसी, आज बेजोश है?

बन भिखारी खड़ी है हर एक द्वार पर,

कोई दे दे कहीं चटपटी इक ख़बर;

ऐ ख़बर बेख़बर!

 

उठ जगा आग तुझमें जो सोई पड़ी,

आग से आग बुझने की आई घड़ी,

काट तू गर्दन-ए-झूठ की इस कदर,

जुर्म खाता फिरे ठोकरें दर-बदर;

ऐ ख़बर बेख़बर!

आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।

आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।

 

यदि राम-कृष्ण को हम अपना आदर्श रखेंगें,

सीता-राधा के प्रश्नों का क्या उत्तर देंगें,

आओ ऐसे कुछ उच्चादर्श बदल लें हम,

आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।

 

आँखें मिलना, दिल दे देना, कुछ बातें और मुलाकातें,

फिर निरी वासना तृप्ति और अलगाव बिताकर कुछ रातें,

आओ सब मिल प्यार को पुनः परिभाषित तो कर दें हम,

आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।

 

लोकतंत्र, आम-चुनाव, राजनीति, नेता, कुर्सी,

इतने निर्दोष मरे हैं इनके कारण कि,

शब्दकोश में ऐसे कुछ शब्दों के अर्थ बदल लें हम,

आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।

 

इक पत्नी, इक घर, दो बच्चे, थोड़ा सा नाम कमाने को,

अपनी आत्मा से हर पग पर समझौता करना पड़ता हो,

तो आओ अब अपने जीवन लक्ष्य बदल लें हम,

आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।

हाय मेरा जीवन निःसार!

हाय मेरा जीवन निःसार!

 

बीत गया जब मेरा यौवन,

उतर गया सारा पागलपन,

फिर जब मिला वही सूनापन,

भटकने लगा फिर प्यासा मन,

तब जाकर मालूम हुआ सच क्या था मेरे यार,

मैं यौवन के पागलपन को समझे था यह प्यार,

हाय मेरा जीवन निःसार!

 

मैं समझा था उसके मन में,

उसके जीवन में कन-कन में,

मैं उसके नयनों में, दिल में,

प्राणों के रिलमिल-झिलमिल में,

उतर गया उसके नयनों से,

यौवन का पागलपन जब से,

नेत्रों में पहले सी ही थी प्यास प्यार की यार,

मैं यौवन के पागलपन को समझे था यह प्यार,

हाय मेरा जीवन निःसार!

शनिवार, 21 नवंबर 2009

मुझसे दूर ही रहना, मेरे पास न आना।

मुझसे दूर ही रहना, मेरे पास न आना।

 

तूफान भी मेरे आँगन में, मृदु झोंके सा लहराता है,

दिनकर भी नन्हें बालक सा हो मचल-मचल इठलाता है,

सागर को गागर में भरकर, अपने आँगन में रखता हूँ,

ऐसे जाने कितने त्रिभुवन, मैं रोज बनाया करता हूँ,

मतवाली हो जाओगी, यदि आँशिक भी मुझको जाना,

मुझसे दूर ही रहना, मेरे पास न आना।

 

मैं सागर को मरूथल के वक्षस्थल में खोजा करता हूँ,

रवि के भीतर होगा हिमनिधि, अक्सर मैं सोंचा करता हूँ,

है चिता भस्म में मैंने पायी नवजीवन की चिंगारी,

हूँ देख चुका मैं मध्यरात्रि में दिनकर को कितनी बारी,

प्रेयसि मैं कवि हूँ,, घातक होगा, मुझसे प्रीत लगाना,

मुझसे दूर ही रहना, मेरे पास न आना।

सोमवार, 16 नवंबर 2009

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

 

लाल-लाल फीतों में लिपटी, नई नवेली नगर वधू सी,

बाहर-भीतर चम-चम करती, देख हँसा, खुश हो, चपरासी,

बाबू ने फ़ाइल देखी, ज्यों देखे गुंडा अबला नारी;

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

 

गाँधीजी के फोटो वाला कागज़ बाबू ने खोजा, पर,

नहीं मिला, तो बोला बाबू, फ़ाइल इक कोने में रखकर,

कौन बचायेगा अब तुझको, बम भोले या कृष्ण मुरारी?

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

 

उसके बाद बताऊँ क्या मैं, बाबू, चपरासी, साहब ने,

मिलकर उसको यों लूटा, ज्यों खाया हो मुर्दा गिद्धों ने,

फ़ाइल का मुँह काला, नीला, लाल किया फिर बारी-बारी;

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

 

साहब, बाबू बदले जब-जब, फिर-फिर वह चीखी-चिल्लाई,

वर्षों बीत गये यूँ ही पर, कभी किसी को दया न आई,

जल कर ख़ाक हुई, इक दिन जब लगी आग दफ्तर में भारी;

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

बुधवार, 11 नवंबर 2009

विद्रोहों को स्वर दो।

विद्रोहों को स्वर दो।

 

जब-जब तुम बने शांतिप्रिय जन,

तब-तब लूटें तुमको दुर्जन,

हो बहुत सह चुके बन सज्जन, तुम क्रांति आज कर दो।

विद्रोहों को स्वर दो।

 

हम सबकी ही मेहनत का धन,

स्विस बैंकों में धर, कर निर्धन

हमको, करते जो ऐश सखे, टुकड़े हजार कर दो।

विद्रोहों को स्वर दो।

 

जनता है जिनसे ऊब चुकी,

सेना भी है सह खूब चुकी,

उन भारत के गद्दारों में, सब मिल कर भुस भर दो।

विद्रोहों को स्वर दो।

 

जो लड़ते हैं जा संसद में,

जूतों लातों से, घूँसों से,

उन सारे लंठ गँवारों को, तुम तार तार कर दो।

विद्रोहों को स्वर दो।

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

मैं नहीं मानता हूँ भगवन

मैं नहीं मानता हूँ भगवन, तू बसता जग के कन-कन में।

 

तू नहीं मिला मुझको ईश्वर, मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारों में,

मालाओं में, शिवलिंगों में, लोगों के ठाकुरद्वारों में,

मैंने देखा तुझको हँसते, नन्हें बच्चों के तन-मन में,

मैं नहीं मानता हूँ भगवन, तू बसता जग के कन-कन में।

 

मठ के सब सन्त-महन्तों से, हर धर्म-ग्रन्थ के खण्डों से,

मैं पूछ थका तेरा ऐड्रेस,  मौलवी-पुजारी-पण्डों से,

तब मिला नाचते इक अंधे के मंजीरे की झन-झन में,

मैं नहीं मानता हूँ भगवन, तू बसता जग के कन-कन में।

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

पाँच सरकारी हाइकु

पूछते नहीं,

राज्य की फाइलों से;

उम्र उनकी।

 

मक्खी गयी थी,

दफ्तर सरकारी;

मरी बेचारी।

 

खून चूस के,

जोंकें ये सरकारी;

माँस भी खातीं।

 

वादों का हार,

पहना के नेताजी;

हैं तड़ीपार।

 

घोंघे की गति,

सरकारी कामों से,

ज्यादा है तेज।

बुधवार, 4 नवंबर 2009

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।

 

धर्म कहता है अगर,

इक भूखे को दुत्कार कर,

तू पूण्य बहु अर्जित करेगा,

मूर्ति पर पय ड़ालकर,

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।

 

धर्म कहता है अगर,

तू चाहे जितने पाप कर,

धुल जायेंगे सब पाप पर,

गंगा में डुबकी मार कर,

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ।

 

धर्म कहता है अगर,

लाखों धरों को तोड़कर,

मन्दिर बना दे एक तो,

तुझको मिलेगा स्वर्ग, गर,

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।

 

धर्म कहता है अगर,

जो धर्म के तेरे नहीं,

जन्नत मिलेगी यदि,

तू उनको मारेगा जेहाद कर,

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।

 

जिसको मैंने समझ देवता,

बचपन से था निसिदिन पूजा,

यूँ ही अगर अचानक निकले,

वो राक्षस से भी बदतर;

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।

 

ये धर्म-स्वर्ग, ये रीति-रिवाज,

पाप-पूण्य, ये नियम-समाज,

जब एक समय की ठोकर से,

जायें सारे विश्वास बिखर;

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।

 

सारे जीवन का श्रम देकर,

जो एक बनाया मैंने घर,

वह तनिक हवा के झोंके से,

हो जाता है गर तितर-बितर;

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।

 

प्रथम बार चाहा दिल की,

भीतरी तहों से जिसे टूटकर,

वह निकले मूर्ति सजीव,

वासना की हे मेरे देव अगर,

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।

मैं कभी न प्यार समझ पाया।

मैं कभी न प्यार समझ पाया।

 

जीवन में पहली बार किया, जब उससे मैंने प्यार किया,

जग बोला है ये प्यार नहीं, है नासमझी ये बचपन की,

मेरे उन कोमल भावों को, उन भोली-मीठी आहों को,

यूँ बेदर्दी से कुचल-मचलकर, जग ने जाने क्या पाया?

मैं कभी न यार समझ पाया,

मैं कभी न प्यार समझ पाया।

 

उसका दिल तोड़ बना निदर्यी, जग बोला यार है यही सही,

जिसमें हो तेरा ये समाज सुखी, सच-झूठ छोड़, कर यार वही,

मेरे पापों को छुपा-वुपाकर, मुझको पापी बना-वनाकर,

जग ने जाने क्या पाया?

मैं कभी न यार समझ पाया,

मैं कभी न प्यार समझ पाया।

 

जग कहता अब इससे प्यार करो, इस पर जीवन न्यौछार करो,

मेरे भीतर का प्रेम कुचल, और वहीं चला नफरत का हल,

हैं बीज घृणा के जब बोये, किस तरह प्रेम पैदा होये?

अब कहता सारा जग मुझसे,

तू कभी न यार समझ पाया,

तू कभी न प्यार समझ पाया।