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शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2009

नहीं चाहता

नहीं चाहता बन पग पैजनिं, मैं उसके चरणों को चूमूँ,

न चाहत बन पदत्राण, यारों मैं उसके संग-संग घूमूँ;

 

ये कभी नहीं चाहा मैंने, बन नथ उसकी सांसों का रस लूँ,

ना ये अभिलाषा है मेरी, बन वस्त्र उसे बाहों में कस लूँ;

 

नहीं चाहता बन कंगन, उसके कोमल हाथों को छूलूँ,

नही अभीप्सित बन बिंदिया, सजकर मस्तक पर खुद को भूलूँ;

 

मेरी अभिलाषा यही प्रिये, जब शून्य-चेतना हो तेरा तन,

वरण तुझे कर चुकी मृत्यु हो, दें तुझको दुत्कार सभी जन;

 

तब मैं बन चन्दन की लकड़ी, तुझको निज बाँहों में भर लूँ;

यदि तुझे जलायें लोग प्रिये, तो मैं भी तेरे साथ जलूँ;

 

बन राख,, लगाकर गले, अस्थियों को तेरी समझूँगा मैं,

मेरा धरती पर आना हुआ सफल, विस्वास करूँगा मैं।

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