नहीं चाहता बन पग पैजनिं, मैं उसके चरणों को चूमूँ,
न चाहत बन पदत्राण, यारों मैं उसके संग-संग घूमूँ;
ये कभी नहीं चाहा मैंने, बन नथ उसकी सांसों का रस लूँ,
ना ये अभिलाषा है मेरी, बन वस्त्र उसे बाहों में कस लूँ;
नहीं चाहता बन कंगन, उसके कोमल हाथों को छूलूँ,
नही अभीप्सित बन बिंदिया, सजकर मस्तक पर खुद को भूलूँ;
मेरी अभिलाषा यही प्रिये, जब शून्य-चेतना हो तेरा तन,
वरण तुझे कर चुकी मृत्यु हो, दें तुझको दुत्कार सभी जन;
तब मैं बन चन्दन की लकड़ी, तुझको निज बाँहों में भर लूँ;
यदि तुझे जलायें लोग प्रिये, तो मैं भी तेरे साथ जलूँ;
बन राख,, लगाकर गले, अस्थियों को तेरी समझूँगा मैं,
मेरा धरती पर आना हुआ सफल, विस्वास करूँगा मैं।
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