बुधवार, 16 सितंबर 2009

तब याद बहुत तू आती है

तब याद बहुत तू आती है।

 

जब किसी पुरानी पुस्तक में, कुछ खोज रहा होता हूँ मैं,

और यूँ ही तभी अचानक मुझको, उस पुस्तक के पन्नों में,

सूखी पंखुडि़याँ गुलाब के फूलों की रक्खी मिल जाती हैं;

तब याद बहुत तू आती है।

 

सावन के मस्त महीने में, जब हरियाली छा जाती है,

झूले पड़ जाने से जब पेड़ों की डाली लहराती है,

उन झूलों पर बैठी कोई लड़की कजरी जब गाती है,

तब याद बहुत तू आती है।

 

वह नन्हा-मुन्हा कमरा जिसमें हम-तुम बैठा करते थे,

गुडड़े-गुडि़या, राजा-रानी, जब हम-तुम खेला करते थे,

उस कमरे को तुड़वाने की माँ जब भी बात चलाती है,

तब याद बहुत तू आती है।

 

एमए, एमबीए, एमसीए और ये तो एमबीबीएस है,

ये लडकी वैसे अच्छी है, पर अब भी लगती बच्ची है,

ऐसा कहकर मम्मी मेरी, जब-जब भी मुझे चिढ़ाती है,

तब याद बहुत तू आती है।

 

अक्सर गर्मी की छुट्टी में, जब गाँव चला मैं जाता हूँ,

और कटे हुए गेहूँ के खेतों मैं खुद को पाता हूँ,

रस्ते पर जाती जब कोई अल्हड़ लड़की दिख जाती है,

तब याद बहुत तू आती है।

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