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बुधवार, 16 सितंबर 2009

औपचारिकतायें

मैं भी वही हूँ, तुम भी वही हो,

मित्र कहता हूँ मैं तुम्हें अब भी,

पर अब वो बात नहीं रही, जो कल थी,

कहीं कुछ,

या शायद बहुत कुछ टूट चुका है,

हमारे भीतर कोई,

एक दूसरे से रूठ चुका है,

तुम जो कहते हो,

अब भी करता हूँ मैं,

मनुहार करता था पहले,

अब नहीं करता मैं,

पर अब एक उदासीनता सी रहती है करने में,

वह खुशी नहीं जो पहले होती थी,

समाज की नजर में,

अपनी दोस्ती का, अपने रिश्ते का,

फर्ज निभा रहा हूँ,

या कहूँ कि बोझ उठा रहा हूँ,

अहित मैं तुम्हारा अब भी नहीं चाहता,

पर अब तुम्हारे हित में अपना हित नहीं महसूस करता,

तुम्हारी खुशी में मुझे खुशी नहीं मिलती,

दुख में दुख का अहसास नहीं होता,

केवल औपचारिकताएँ पूरी करता हूँ ।

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