कितनी ही बार..... बगीचों में,
फूलों की क्यारियों के बीच से गुजरते हुए,
उनसे उठती मादक खुशबुओं में,
मैंने महसूस की हैं..... तेरी साँसे।
कभी कोयल की कूक में, कभी झरनों की कल-कल में,
कभी झींगुरों की झन-झन में, कभी हवाओं की सन-सन में,
कभी पपीहे की पुकार में, कभी पायल की झनकार में,
मेरे कानों ने सुनी हैं.... तेरी बातें।
गंगा के तट पर बैठकर,
दूर आसमान में... कितनी ही सुहानी शामों को,
सिंदूरी रंगत के बनते बिगड़ते बादलों में,
कितनी ही बार मैंने देखा है.... तेरा शर्म से लाल चेहरा।
तपती हुई गमिर्यों में,
मैदानों से दूर पहाड़ों की ठंढ़क में,
वहाँ बिखरी फैली हिरयाली में,
मैनें अक्सर देखा है उड़ता हुआ.... तुम्हारा वो हरा दुपट्टा।
कितनी ही बार कहीं अकेले में बैठकर,
तुम्हारे बारे में ही सोचते हुए,
अपनी आँखों में मैंने पाये हैं..... तुम्हारे आँसू।
कितनी ही बार..... कितनी ही बार.....।
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