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रविवार, 13 सितंबर 2009

रोज ही

एक आँसू आँख से बाहर छलकता रोज ही
जख़्म यूँ तो है पुराना पर कसकता रोज ही।

थी मिली मुझसे गले तू पहली-पहली बार जब
वक्त की बदली में वो लम्हा चमकता रोज ही।

कोशिशें करता हूँ सारा दिन तुझे भूलूँ मगर
चूम कर तस्वीर तेरी मैं सिसकता रोज ही।

इक नई मुश्किल मुझे मिल जाती है हर मोड़ पर,
क्या ख़ुदा की आँख में मैं हूँ खटकता रोज ही।

लिख गया तकदीर में जो रोज बिखरूँ टूट कर
आखिरी पल मैं उसी को हूँ पटकता रोज ही।

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छा लेख है। ब्लाग जगत मैं स्वागतम्।

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  2. स्वागत और शुभकामनाये , अन्य ब्लॉगों को भी पढ़े और अपने सुन्दर विचारों से सराहें भी

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  3. SAJJAN JI BAHUT ACHHI GAZAL KAHI AAPNE HRIDY KI SARI PEEDA HI UDEL DI
    आँख में आँसू मेरे आकर छलकते रोज ही,

    जख़्म यूँ तो हैं पुराने पर कसकते रोज ही।



    उसे भूलने की कोशिशों में दिन गुज़र जाता है पर,

    चूमता हूँ शाम को तस्वीर उसकी रोज़ ही।

    BAHUT KHOOB LEKIN, THODA AUR KASIYE, NIRMAM HOKAR TRASHIYE GUNJAISH HAI.. KATHAY AAPKE VAJOOD SE, AAPKE ANTAS KI GAHRAI SE NIKAL RAHA HAI ISKI ABHIVYAKTI MEIN KOI KASAR NAHIN RAHNI CHAHIYE.

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  4. चिटठा जगत में आपका हार्दिक स्वागत है. लेखन के द्वारा बहुत कुछ सार्थक करें, मेरी शुभकामनाएं.
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    अंतिम पढ़ाव पर- हिंदी ब्लोग्स में पहली बार Friends With Benefits - रिश्तों की एक नई तान (FWB) [बहस] [उल्टा तीर]

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  5. ब्लॉग परिवार में स्वागत है!लिखते और पढ़ते रहिये...!अपने विचार रखिये..

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