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रविवार, 6 सितंबर 2009

सरस्वती वन्दना

फिर वीणा मधुर बजाओ।

 

वह मोहन राग सुनाओ, तन-मन सब की सुधि भूलूँ,

इस दुनिया से ऊपर उठ, कुछ देर हवा में झूलूँ,

हम-तुम-वह, सब मिट जाए, क्षण भर को वह स्वर गाओ;

फिर वीणा मधुर बजाओ।

 

है सदा विजय की चाहत, माँ बहुत बुरी है यह लत,

जब कभी हार जाता हूँ, हफ्तों ना मिलती राहत,

कुछ हार सहन करने की, भी शक्ति मुझे दे जाओ;

फिर वीणा मधुर बजाओ।

 

वह शक्ति मुझे दो अम्बे, संघर्ष सत्य जब जानूँ,

मंत्र-वेद-विधि-गुरु-ईश्वर, तक से भी हार न मानूँ

मैं सत्य-मार्ग ना छोडूँ, वह ज्ञान-ज्योति दिखलाओ;

फिर वीणा मधुर बजाओ।

 

इस स्वार्थ-घृणामय जग में, कुछ अमर प्रेम स्वर भर दो,

फिर प्रेम-मल्हार सुनाकर, नभ प्रेम-मेघमय कर दो,

जग प्रेम-प्लवित हो जाए, वह प्रेम-धार बरसाओ।

फिर वीणा मधुर बजाओ।

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