यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
मंगलवार, 29 दिसंबर 2009
साहबगीरी के दोहे
फर्ज तुम्हारा आम को, काट उगाओ नीम॥
साहब बोलें गर सखे, सोलह दूनी आठ।
सदा याद रखना उसे, बने रहेंगे ठाठ॥
साहब जब जब हँस पड़ैं, तुम भी हँस दो साथ।
बात हँसी की हो सखे, या हो दुख की बात॥
साहब को उर में धरो, जपो साब का नाम।
साहब खुश गर हो गए, बनैं बीगड़े काम॥
जय हो साहब बोलि के, सदा नवाओ माथ।
जो फल साहब दे सकें, नहीं देत रघुनाथ॥
साहब के गुण-गान से, धुलैं आप के पाप।
बाल न बाँका कर सकै, ‘विजीलेन्स’ का बाप॥
साहब को सूचित करो, हर छोटी सी बात।
काम करो या ना करो, कौन पूछने जात॥
आगे बढ़ते जाओगे, कभी न छोड़ो हाथ।
बाथरूम में भी सखे, जाओ साब के साथ॥
कितना भी तुम कर मरो, हो जाओगे फेल।
सुबह-शाम गर साब को, नहीं लगाया तेल॥
रविवार, 20 दिसंबर 2009
बाँस
भाई बाँस,
तुम हो विश्व की सबसे लम्बी घास,
कैसा लगता है तुम्हें?
वो बोला क्या बताऊँ,
नीचे सारे पेड़ आपस में बातें करते हैं,
एक दूसरे के साथ खेलते हैं,
हवायें चलती हैं तो एक दूसरे को चूमते हैं,
और मैं यहाँ अकेले खड़ा-खड़ा,
जिन्दगी से तंग आ जाता हूँ,
जब मैं बड़ा होकर झुकता हूँ,
यह सोचकर कि मैं भी औरों के साथ रहूँ,
तो भरी जवानी में लोग मुझे काट ले जाते हैं,
और मैं फिर से बढ़ते लगता हूँ,
तन्हा जीने-मरने के लिये।
प्याज
अब तक तो मुझे आदत पड़ जानी चाहिए थी;
बिना रोये,
तुझे बर्दाश्त करने की हिम्मत आ जानी चाहिए थी;
पर तुझमें कुछ ऐसी बात है,
कि जब जब भी तुझे काटा जाता है,
काटने वाले की आँखों में आँसू,
तू ले ही आता है;
तुझे देखकर यही लगता है,
कि सारे घाव नहीं भर पाता समय भी,
प्याज! तू रुला देता है मुझको आज भी।
एक पगली
रास्ते में, चौराहे पर, पूरे कस्बे में,
मैले कुचैले वस्त्र, धूल भरे बाल,
काली काली चमड़ी,
महीनों से बिना नहाए,
तन-मन पर कई जगह बड़े बड़े घाव लिए,
हाथ में एक सूखी टहनी है,
जिसे वो बार-बार चूमती है,
एक पगली घूमती है।
फिर अचानक कस्बे के पुजारी को दया आई,
वो उसे कस्बे के सबसे धनवान,
पुजारी के प्रमुख जजमान,
के पास ले गया,
नहलाया, धुलाया, इत्र दिया लगाने को,
अच्छे कपड़े पहनाए, खाना दिया खाने को,
और फिर दोनों ने मिलकर,
सब वसूल किया सूद समेत,
अब जब रातों को बाग में पेड़ों की डालियाँ झूमतीं हैं,
तो लोग कहते हैं,
पेड़ों पर पगली की आत्मा घूमती है।
एक नाव
डगमगाती रही, डूबती रही,
नदी शान्त खड़ी थी,
चाँद चुपचाप देख रहा था,
किनारों ने मुँह फेर लिया था,
हवायें पेड़ों के पीछे छुप गयीं थीं,
थोड़ी ही देर में,
पानी नाव में पूरी तरह भर गया,
और निश्चल हो गये नाव के हाथ-पाँव,
बेचारी नाव....
फिर सबकुछ पहले जैसा हो गया,
हवा फिर बहने लगी,
चाँद गुनगुनाने लगा,
नदी हँसने लगी,
किनारे नदी को बाँहों में भरने की कोशिश करने लगे,
जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो,
और नाव बेचारी कराहती हुई,
गहरे और गहरे डूबती चली गई,
पानी अपनी शक्ति पर इतराता रहा।
शनिवार, 19 दिसंबर 2009
यूँ ही
गुलाब की पंखुड़ी होठों में दबा ली थी,
तब पता लगा,
लोग कितनी गलत उपमा देते हैं,
कहाँ वो ठंढी, नीरस, पंखुड़ी,
कहाँ तुम्हारे वो गर्म, रसभरे होंठ,
यूँ ही एक दिन,
चाँद को ध्यान से देख लिया था,
तब जाकर पता लगा,
कि मैं कितना गलत कहता था,
कहाँ वो दागदार, निर्जन चाँद,
कहाँ तुम्हारा वो बेदाग, जीवंत चेहरा,
यूँ ही एक दिन,
चंदन का पेड़ दिख गया था,
तब पता चला, मैं कितना गलत सोचता था,
कहाँ तुम्हारा वो रेशमी, बलखाता बदन,
कहाँ ये साँपों से लिपटा, जड़, चन्दन।
तेरा रूप
जल सा, अनल सा भी प्रिये तेरा रूप है;
आग ये लगाता भी है, आग ये बुझाता भी है,,
चैन लेके चैन देता, अजब-अनूप है।
युद्ध शान्ति दोनों को ही, जन्म ये दे सकता है,
कभी घनी छाँव है, तो कभी तीखी धूप है;
भागकर इससे न कोई पार पा सका है,
पार वही होता है, जो इसमें जाता डूब है।
गुरुवार, 17 दिसंबर 2009
ये रात निगोड़ी, बीतती हि नहीं
मैं जाग रहा हूँ, नभ को ताक रहा हूँ,
है बेशर्म चाँद ये, जाता हि नहीं,
ये रात निगोड़ी, बीतती हि नहीं।
करवट बदल बदल, है पीठ रही जल,
हैं तारे मुझपे हँसते, मुँह छिपा कहीं,
ये रात निगोड़ी, बीतती हि नहीं।
कल आ वो जाएगी, संग नींद लायेगी,
फिर कभी चाँद-तारों को देखूँगा नहीं,
पर रात निगोड़ी, बीतती हि नहीं।
मंगलवार, 15 दिसंबर 2009
महुवा
उसके आँसू गिरते रहे,
और पेड़ के नीचे उसके आँसुओं का गद्दा बिछ गया,
सुबह लोग आये,
और उन्होंने सारे आँसू बीन लिये,
फिर उन आँसुओं का हलवा बनाया,
और सबने खूब चटखारे लेकर खाया,
किसी ने कभी महुवे से,
उसका हाल चाल जानने की कोशिश नहीं की,
उसके रोने का कारण नहीं पूछा,
उसका दुख नहीं बाँटा,
महुवा आज भी रोता है,
और लोग उसके आँसुओं का हलवा खाते हैं,
बिना उसके दुख दर्द का कारण जानने की कोशिश किये।
स्मृति
ये जानते लोग सभी हैं;
रेत के घरौंदे,
बनाते वो फिर भी हैं।
माना प्रकृति मिटा सकती है,
नर की निर्मिति;
पर मिटा नहीं सकती,
उस नन्हें घर की स्मृति।
सोमवार, 14 दिसंबर 2009
मेरा चाँद आज आधा है
उखड़ा हुआ मुखड़ा, सूजी हुई आँखें,
आज इसकी आँखों में, नमी कुछ ज्यादा है,
मेरा चाँद आज आधा है।
बात क्या हो गयी है, रात रो सी रही है,
जाने क्यों कष्ट इसे, आज कुछ ज्यादा है,
मेरा चाँद आज आधा है।
घबरा मत चाँद मेरे, दुख की इन रातों में,
साथ तेरे रहूँगा मैं, मेरा तुझसे वादा है,
मेरा चाँद आज आधा है।
शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009
फट गया दिल एक बादल का
प्यार का मृदु स्वप्न लेकर,
छोड़ आया था वो सागर,
भटकता था जाने कब से,
पूछता था यही सब से;
कहाँ वह थल, जहाँ कर
लूँ अपना दिल हलका।
सब ये कहते थे बढ़ा चल,
वीर तू पर्वत चढ़ा चल,
जगत में निज नाम कर तू,
वीरता का काम कर तू;
प्रेम के मत फेर पड़ तू,
प्यार तो है नाम बस छल का।
तभी उसको दिखी चोटी,
प्रीति उसके हृदय लौटी,
श्वेत हिम से वो ढकी थी,
प्रेम रस से भी छकी थी;
राह रोकी तभी गिरि ने,
कर प्रदर्शन बाहु के बल का।
लड़ा गिरि से बहुत बादल,
मगर वो जल से भरा था,
तिस पे उतने पहुँच ऊपर,
अधमरा सा हो चला था;
दर्द इतना बढ़ गया,
वह फाड़ दिल छलका।
गाँव कितने बह गये फिर,
कितने ही घर ढह गये फिर,
दोष देते लोग, भगवन!
क्यों किया यह मृत्यु नर्तन?
मैं समझ ना पा रहा,
यह दोष था किसका।
उन सबको धन्यवाद मेरा
दुख मुझको देकर जिस-जिस ने
है सिखा दिया गम को पीना,
मुँह मोड़, छोड़ मुझको जिसने,
है सिखा दिया तन्हा जीना;
उनको है साधुवाद मेरा।
अपमान मेरा करके जिसने,
सम्मान क्षणिक यह सिखलाया,
जिस-जिस ने हो मेरे खिलाफ,
अपनों तक मुझको पहुँचाया;
है उनको साधुवाद मेरा।
जिस जिस ने मुझे पराजित कर
अभिमान मेरा है चूर किया,
डर दिखा भविष्यत का मुझको
आलस्य मेरा है दूर किया;
उनको है साधुवाद मेरा।
बुधवार, 9 दिसंबर 2009
रात भर नींद में गुनगुनाता रहा
ख्वाब में तुम मेरे आती जाती रहीं,
रात भर नींद में गुनगुनाता रहा।
दिन निकल ही गया फाइलों में मगर,
प्रीति की है कुछ ऐसी सनम रहगुजर,
व्यस्त जब तक था मैं, मन था बहला हुआ,
पर अकेले में ये कसमसाता रहा।
साँझ यादों की मधु ले के फिर आ गई,
रात तक तुम नशा बन के थीं छा गई,
यूँ तो मदहोश था, फिर भी बेहोशी में,
नाम तेरा ही मैं बड़बड़ाता रहा।
फिर सुबह हो गई, रात फिर सो गई,
चाय के स्वाद में, याद फिर खो गई,
जब मैं दफ्तर गया न किसी को लगा,
रात बिस्तर पे मैं छटपटाता रहा।
रविवार, 22 नवंबर 2009
ऐ ख़बर बेख़बर!
ऐ ख़बर बेख़बर!
बुधिया लुटती रही, फुलवा घुटती रही,
तू सिनेमा, सितारों में उलझी रही,
जाके लोटी तु मंत्री के, नेता के घर,
क्या कहूँ है गिरी आज तू किस कदर;
ऐ ख़बर बेख़बर!
सच को समझा नहीं, सच को जाना नहीं,
झूठ को झूठ भी तूने माना नहीं,
जो बिकी, है बनी, आज वो ही खबर,
है टँगा सत्य झूठों की दीवार पर;
ऐ ख़बर बेख़बर!
भूत प्रेतों को दिन भर दिखाती रही,
लोगों का तू भविष्यत बताती रही,
आम लोगों पे क्या गुजरी है, आज, पर,
ये न आया तुझे, है कभी भी नजर;
ऐ ख़बर बेख़बर!
तू थी खोजी कभी, आज मदहोश है,
थी कभी साहसी, आज बेजोश है?
बन भिखारी खड़ी है हर एक द्वार पर,
कोई दे दे कहीं चटपटी इक ख़बर;
ऐ ख़बर बेख़बर!
उठ जगा आग तुझमें जो सोई पड़ी,
आग से आग बुझने की आई घड़ी,
काट तू गर्दन-ए-झूठ की इस कदर,
जुर्म खाता फिरे ठोकरें दर-बदर;
ऐ ख़बर बेख़बर!
आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।
आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।
यदि राम-कृष्ण को हम अपना आदर्श रखेंगें,
सीता-राधा के प्रश्नों का क्या उत्तर देंगें,
आओ ऐसे कुछ उच्चादर्श बदल लें हम,
आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।
आँखें मिलना, दिल दे देना, कुछ बातें और मुलाकातें,
फिर निरी वासना तृप्ति और अलगाव बिताकर कुछ रातें,
आओ सब मिल प्यार को पुनः परिभाषित तो कर दें हम,
आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।
लोकतंत्र, आम-चुनाव, राजनीति, नेता, कुर्सी,
इतने निर्दोष मरे हैं इनके कारण कि,
शब्दकोश में ऐसे कुछ शब्दों के अर्थ बदल लें हम,
आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।
इक पत्नी, इक घर, दो बच्चे, थोड़ा सा नाम कमाने को,
अपनी आत्मा से हर पग पर समझौता करना पड़ता हो,
तो आओ अब अपने जीवन लक्ष्य बदल लें हम,
आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।
हाय मेरा जीवन निःसार!
हाय मेरा जीवन निःसार!
बीत गया जब मेरा यौवन,
उतर गया सारा पागलपन,
फिर जब मिला वही सूनापन,
भटकने लगा फिर प्यासा मन,
तब जाकर मालूम हुआ सच क्या था मेरे यार,
मैं यौवन के पागलपन को समझे था यह प्यार,
हाय मेरा जीवन निःसार!
मैं समझा था उसके मन में,
उसके जीवन में कन-कन में,
मैं उसके नयनों में, दिल में,
प्राणों के रिलमिल-झिलमिल में,
उतर गया उसके नयनों से,
यौवन का पागलपन जब से,
नेत्रों में पहले सी ही थी प्यास प्यार की यार,
मैं यौवन के पागलपन को समझे था यह प्यार,
हाय मेरा जीवन निःसार!
शनिवार, 21 नवंबर 2009
मुझसे दूर ही रहना, मेरे पास न आना।
मुझसे दूर ही रहना, मेरे पास न आना।
तूफान भी मेरे आँगन में, मृदु झोंके सा लहराता है,
दिनकर भी नन्हें बालक सा हो मचल-मचल इठलाता है,
सागर को गागर में भरकर, अपने आँगन में रखता हूँ,
ऐसे जाने कितने त्रिभुवन, मैं रोज बनाया करता हूँ,
मतवाली हो जाओगी, यदि आँशिक भी मुझको जाना,
मुझसे दूर ही रहना, मेरे पास न आना।
मैं सागर को मरूथल के वक्षस्थल में खोजा करता हूँ,
रवि के भीतर होगा हिमनिधि, अक्सर मैं सोंचा करता हूँ,
है चिता भस्म में मैंने पायी नवजीवन की चिंगारी,
हूँ देख चुका मैं मध्यरात्रि में दिनकर को कितनी बारी,
प्रेयसि मैं कवि हूँ,, घातक होगा, मुझसे प्रीत लगाना,
मुझसे दूर ही रहना, मेरे पास न आना।
सोमवार, 16 नवंबर 2009
ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!
ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!
लाल-लाल फीतों में लिपटी, नई नवेली नगर वधू सी,
बाहर-भीतर चम-चम करती, देख हँसा, खुश हो, चपरासी,
बाबू ने फ़ाइल देखी, ज्यों देखे गुंडा अबला नारी;
ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!
गाँधीजी के फोटो वाला कागज़ बाबू ने खोजा, पर,
नहीं मिला, तो बोला बाबू, फ़ाइल इक कोने में रखकर,
कौन बचायेगा अब तुझको, बम भोले या कृष्ण मुरारी?
ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!
उसके बाद बताऊँ क्या मैं, बाबू, चपरासी, साहब ने,
मिलकर उसको यों लूटा, ज्यों खाया हो मुर्दा गिद्धों ने,
फ़ाइल का मुँह काला, नीला, लाल किया फिर बारी-बारी;
ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!
साहब, बाबू बदले जब-जब, फिर-फिर वह चीखी-चिल्लाई,
वर्षों बीत गये यूँ ही पर, कभी किसी को दया न आई,
जल कर ख़ाक हुई, इक दिन जब लगी आग दफ्तर में भारी;
ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!
बुधवार, 11 नवंबर 2009
विद्रोहों को स्वर दो।
विद्रोहों को स्वर दो।
जब-जब तुम बने शांतिप्रिय जन,
तब-तब लूटें तुमको दुर्जन,
हो बहुत सह चुके बन सज्जन, तुम क्रांति आज कर दो।
विद्रोहों को स्वर दो।
हम सबकी ही मेहनत का धन,
स्विस बैंकों में धर, कर निर्धन
हमको, करते जो ऐश सखे, टुकड़े हजार कर दो।
विद्रोहों को स्वर दो।
जनता है जिनसे ऊब चुकी,
सेना भी है सह खूब चुकी,
उन भारत के गद्दारों में, सब मिल कर भुस भर दो।
विद्रोहों को स्वर दो।
जो लड़ते हैं जा संसद में,
जूतों लातों से, घूँसों से,
उन सारे लंठ गँवारों को, तुम तार तार कर दो।
विद्रोहों को स्वर दो।
शुक्रवार, 6 नवंबर 2009
मैं नहीं मानता हूँ भगवन
मैं नहीं मानता हूँ भगवन, तू बसता जग के कन-कन में।
तू नहीं मिला मुझको ईश्वर, मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारों में,
मालाओं में, शिवलिंगों में, लोगों के ठाकुरद्वारों में,
मैंने देखा तुझको हँसते, नन्हें बच्चों के तन-मन में,
मैं नहीं मानता हूँ भगवन, तू बसता जग के कन-कन में।
मठ के सब सन्त-महन्तों से, हर धर्म-ग्रन्थ के खण्डों से,
मैं पूछ थका तेरा ऐड्रेस, मौलवी-पुजारी-पण्डों से,
तब मिला नाचते इक अंधे के मंजीरे की झन-झन में,
मैं नहीं मानता हूँ भगवन, तू बसता जग के कन-कन में।
गुरुवार, 5 नवंबर 2009
पाँच सरकारी हाइकु
पूछते नहीं,
राज्य की फाइलों से;
उम्र उनकी।
मक्खी गयी थी,
दफ्तर सरकारी;
मरी बेचारी।
खून चूस के,
जोंकें ये सरकारी;
माँस भी खातीं।
वादों का हार,
पहना के नेताजी;
हैं तड़ीपार।
घोंघे की गति,
सरकारी कामों से,
ज्यादा है तेज।
बुधवार, 4 नवंबर 2009
तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।
तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।
धर्म कहता है अगर,
इक भूखे को दुत्कार कर,
तू पूण्य बहु अर्जित करेगा,
मूर्ति पर पय ड़ालकर,
तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।
धर्म कहता है अगर,
तू चाहे जितने पाप कर,
धुल जायेंगे सब पाप पर,
गंगा में डुबकी मार कर,
तो मैं अधर्मी ही भला हूँ।
धर्म कहता है अगर,
लाखों धरों को तोड़कर,
मन्दिर बना दे एक तो,
तुझको मिलेगा स्वर्ग, गर,
तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।
धर्म कहता है अगर,
जो धर्म के तेरे नहीं,
जन्नत मिलेगी यदि,
तू उनको मारेगा जेहाद कर,
तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।
मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।
मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।
जिसको मैंने समझ देवता,
बचपन से था निसिदिन पूजा,
यूँ ही अगर अचानक निकले,
वो राक्षस से भी बदतर;
मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।
ये धर्म-स्वर्ग, ये रीति-रिवाज,
पाप-पूण्य, ये नियम-समाज,
जब एक समय की ठोकर से,
जायें सारे विश्वास बिखर;
मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।
सारे जीवन का श्रम देकर,
जो एक बनाया मैंने घर,
वह तनिक हवा के झोंके से,
हो जाता है गर तितर-बितर;
मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।
प्रथम बार चाहा दिल की,
भीतरी तहों से जिसे टूटकर,
वह निकले मूर्ति सजीव,
वासना की हे मेरे देव अगर,
मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।
मैं कभी न प्यार समझ पाया।
मैं कभी न प्यार समझ पाया।
जीवन में पहली बार किया, जब उससे मैंने प्यार किया,
जग बोला है ये प्यार नहीं, है नासमझी ये बचपन की,
मेरे उन कोमल भावों को, उन भोली-मीठी आहों को,
यूँ बेदर्दी से कुचल-मचलकर, जग ने जाने क्या पाया?
मैं कभी न यार समझ पाया,
मैं कभी न प्यार समझ पाया।
उसका दिल तोड़ बना निदर्यी, जग बोला यार है यही सही,
जिसमें हो तेरा ये समाज सुखी, सच-झूठ छोड़, कर यार वही,
मेरे पापों को छुपा-वुपाकर, मुझको पापी बना-वनाकर,
जग ने जाने क्या पाया?
मैं कभी न यार समझ पाया,
मैं कभी न प्यार समझ पाया।
जग कहता अब इससे प्यार करो, इस पर जीवन न्यौछार करो,
मेरे भीतर का प्रेम कुचल, और वहीं चला नफरत का हल,
हैं बीज घृणा के जब बोये, किस तरह प्रेम पैदा होये?
अब कहता सारा जग मुझसे,
तू कभी न यार समझ पाया,
तू कभी न प्यार समझ पाया।
शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009
स्वर्ग-नर्क
स्वर्ग-नर्क की बात सोचकर
बाल न अपने नोंच,
दोनों में कुछ अन्तर है
तो वो है अपनी सोंच;
स्वर्ग सुखी है बड़ा
वहाँ परियाँ हैं आतीं,
यही सोचकर नर्क
दुखी है मेरे साथी;
नर्क में बड़ा कष्ट
वहाँ राक्षस तड़पाते,
यही सोचकर स्वर्ग
में सभी हँसते-गाते;
इतनी सी है बात
न दोनों में अन्तर है,
बाकी सब विद्वानों का
जन्तर-मन्तर है।
नहीं चाहता
नहीं चाहता बन पग पैजनिं, मैं उसके चरणों को चूमूँ,
न चाहत बन पदत्राण, यारों मैं उसके संग-संग घूमूँ;
ये कभी नहीं चाहा मैंने, बन नथ उसकी सांसों का रस लूँ,
ना ये अभिलाषा है मेरी, बन वस्त्र उसे बाहों में कस लूँ;
नहीं चाहता बन कंगन, उसके कोमल हाथों को छूलूँ,
नही अभीप्सित बन बिंदिया, सजकर मस्तक पर खुद को भूलूँ;
मेरी अभिलाषा यही प्रिये, जब शून्य-चेतना हो तेरा तन,
वरण तुझे कर चुकी मृत्यु हो, दें तुझको दुत्कार सभी जन;
तब मैं बन चन्दन की लकड़ी, तुझको निज बाँहों में भर लूँ;
यदि तुझे जलायें लोग प्रिये, तो मैं भी तेरे साथ जलूँ;
बन राख,, लगाकर गले, अस्थियों को तेरी समझूँगा मैं,
मेरा धरती पर आना हुआ सफल, विस्वास करूँगा मैं।
सहयात्री मिल जाते
सहयात्री मिल जाते!
इस जीवन यात्रा के क्षण दो-
क्षण तो मधुरिम हो जाते;
सहयात्री मिल जाते!
कुछ समीप की कुछ सुदूर-
की हो जातीं कुछ बातें;
सहयात्री मिल जाते!
वो कुछ कहते, हम कुछ-
कहते, हँसते और हँसाते;
सहयात्री मिल जाते!
क्षण भर के ही पर कुछ-
बन्धन औरों से बँध जाते;
सहयात्री मिल जाते।
कुछ पल उड़ते पंख
लगाकर यूँ ही आते-जाते;
सहयात्री मिल जाते।
इस लम्बी यात्रा के कुछ-
क्षण स्मृतियों में बस जाते;
सहयात्री मिल जाते।मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009
देवी तुम जाओ मन्दिर में
देवी तुम जाओ मन्दिर में।
मेरे घर में क्यों आओगी?
मुझ गरीब से क्या पाओगी?
धूप, द्वीप, नैवेद्य, फूल, फल,
स्वर्ण-मुकुट, पावन-गंगाजल,
पीताम्बर औ’ वस्त्र रेशमी,
मेरे पास नहीं ये कुछ भी,
कैसे रह पाओगी सोंचो, तुम मेरे छोटे से घर में?
देवी तुम जाओ मन्दिर में।
मेरे श्रद्धा सुमनों में देवि,
है रंग नहीं, है गंध नहीं,
है गागर प्रेम भरी उर में,
पर बुझा सकेगी प्यास नहीं,
हैं पूजा के स्वर आँखों में,
पर है उनमें आवाज नहीं,
कैसे पढ़ पाओगी भावों को, उठते जो मेरे उर में?
देवी तुम जाओ मन्दिर में।
तुमको भाती है उपासना,
लोगों का कातर हो कहना,
"देवी ये मुझको दे देना,
देवी उससे वो ले लेना,
देवी इसको अच्छा करना,
उससे मेरी रक्षा करना,"
कैसे मांगोगी तुम मुझसे, छोटी छोटी चीजें घर में?
देवी तुम जाओ मन्दिर में।
शुक्रवार, 18 सितंबर 2009
साहब बोले (हाइकु कविता)
"नींबू मीठा होता है"
मैं बोला, "हाँ जी"।
साहब बोले,
"चीनी फीकी होती है"
मैं बोला, "हाँ जी"।
साहब बोले,
"मिर्ची खट्टी होती है"
मैं बोला, "हाँ जी"।
साहब बोले,
"मैं बनूँगा एम डी?"
मैं बोला, "हाँ जी"।
मैं बोला, "सर
दस दिन की छुट्टी
है मुझे लेनी"।
"जा अब छुट्टी,
बड़ा काम है किया"
साहब बोले।
गुरुवार, 17 सितंबर 2009
सात हाइकु
आँसू तुम्हारे,
मेरे लिये बहे क्यों,
पराया हूँ मैं।
नशा हो गया,
जो मैंने पिया प्याला,
आँखो से तेरी।
छू दे प्यार से,
वो पत्थर को इंसा,
करे पल में।
मधुशाला हो,
न हों आँखें तेरी, तो
चढ़ती नहीं।
मधु है, या है
ये, अमृत का प्याला,
या लब तेरे।
बिजली गिरी,
न थी छत भी जहाँ,
उसी के यहाँ।
उँचा पहाड़,
बगल में है देखो,
गहरी खाई।बुधवार, 16 सितंबर 2009
शायरी
१- कहाँ कहाँ नहीं खोजा तुमने, एक कतरा सच्ची मोहोब्बत का।
कभी तो गौर से ऐ दोस्त, मेरी आँखों में भी देखा होता ।।
२- आँखो तक आया प्यार, निकल कर बह न सका।
तुम समझ न पाये यार, और मैं कह न सका।।
३- काँटे टूट गये छूकर हमको, फूलों ने लहूलुहान कर दिया।
दुश्मन काँपते रहे डर से, दोस्तों ने परेशान कर दिया।।
४- ये राह ए इश्क है, जरा संभलना, यहाँ कदम कदम पर दर्द मिलते हैं।
सूरत पे मत जाना दोस्तों, अक्सर, इस राह पर लोग बडे बेदर्द मिलते हैं।।
५- चलो मेरा उनको छेड़ना कुछ काम तो आया,
बदनाम करने को ही सही,
उनकी जुबाँ पे मेरा नाम तो आया।
हैं छन्द मेरे प्रेयसि मधुमय, अंगारे हैं ये अधर तेरे।
७- कितनी भी ड़ालियाँ बदल ले, कितना भी मीठा बोल ले
इस जमाने की सदा यही रीत है रही,
तुझे सुन के सब चले जायेंगे कोयल, कोई तुझे पालेगा नहीं।
८- कितने भी गहरे भाव लिखें हम, कविता कहलायेंगे।
तुम छू दो होंठों से शब्दों को, गीत वो बन जायेगें ।।
९- कभी किसी को टूटकर प्यार मत करना, वरना,
हल्की सी ठोकर से तुमको पड़ जायेगा बिखरना ।
तब याद बहुत तू आती है
तब याद बहुत तू आती है।
जब किसी पुरानी पुस्तक में, कुछ खोज रहा होता हूँ मैं,
और यूँ ही तभी अचानक मुझको, उस पुस्तक के पन्नों में,
सूखी पंखुडि़याँ गुलाब के फूलों की रक्खी मिल जाती हैं;
तब याद बहुत तू आती है।
सावन के मस्त महीने में, जब हरियाली छा जाती है,
झूले पड़ जाने से जब पेड़ों की डाली लहराती है,
उन झूलों पर बैठी कोई लड़की कजरी जब गाती है,
तब याद बहुत तू आती है।
वह नन्हा-मुन्हा कमरा जिसमें हम-तुम बैठा करते थे,
गुडड़े-गुडि़या, राजा-रानी, जब हम-तुम खेला करते थे,
उस कमरे को तुड़वाने की माँ जब भी बात चलाती है,
तब याद बहुत तू आती है।
एमए, एमबीए, एमसीए और ये तो एमबीबीएस है,
ये लडकी वैसे अच्छी है, पर अब भी लगती बच्ची है,
ऐसा कहकर मम्मी मेरी, जब-जब भी मुझे चिढ़ाती है,
तब याद बहुत तू आती है।
अक्सर गर्मी की छुट्टी में, जब गाँव चला मैं जाता हूँ,
और कटे हुए गेहूँ के खेतों मैं खुद को पाता हूँ,
रस्ते पर जाती जब कोई अल्हड़ लड़की दिख जाती है,
तब याद बहुत तू आती है।
भगवान बन गया मैं देखो
भगवान बन गया मैं देखो।
निदोर्षों की चीत्कारों से, हिलतीं मन्दिर की दीवारें,
कितनी अबलाओं की लज्जा, लुटती देखो मेरे द्वारे,
पर मुझको क्या मतलब इससे,
मेरे आँख कान सब पत्थर के,
इन्सान नहीं अब हूँ मैं तो,
भगवान बन गया मैं देखो।
हिन्दू हों या मुस्लिम या सिख, डरते हैं मुझसे यार सभी,
मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारों में झुकते हैं कितनी बार सभी,
हैं काँप रहे सब ही थर-थर,
करते जय-जय मेरी डरकर,
जब चाहूँ खत्म करूँ इनको,
भगवान बन गया मैं देखो।
इन्सानों का जीवन-तन-मन, ये इनके भावुक आकर्षण,
इनके रिश्ते, नाते, अस्मत और कहते ये जिसको किस्मत,
ये प्यार मोहोब्बत इनके रे,
सब खेल-खिलौने हैं मेरे,
जैसे चाहूँ तोडूँ इनको,
भगवान बन गया मैं देखो।
मेरी मर्जी अकाल ला दूँ, या बाढ़ जमीं पर फैला दूँ,
जब चाहूँ इन धमार्न्धों में, धामिर्क दंगे मैं करवा दूँ,
करवा दूँ मैं कुछ भी इनमें,
मेरी ही जय बोलेंगे ये,
इस कदर डरा रक्खा सबको,
भगवान बन गया मैं देखो।
कैसे आऊंगा मैं तेरी शादी में
कैसे आऊँगा मैं तेरी शादी में?
तुझे किसी और की होते, कैसे देख पाऊँगा मैं?
तेरी शादी में;
दिल रो रहा होगा मेरा,
तो आँसू आँखों के कैसे रोक पाऊँगा मैं?
तेरी शादी में;
तू उन्हें देख शर्मा के मुस्कायेगी,
आग सी मेरे तन-मन में लग जायेगी,
खाक हो जाऊँगा मैं,
तेरी शादी में;
वरमाला जो तू पिया को पहनायेगी,
फंदा बन के गला मेरा दबायेगी,
घुट के मर जाऊँगा मैं,
तेरी शादी में;
संग पिया के जब तू होगी विदा,
भूल जाऊँगा मैं क्या है अच्छा-बुरा,
ड़रता हूँ कि कत्ल-ए-आम कर जाऊँगा मैं,
तेरी शादी में;
कैसे आऊँगा मैं तेरी शादी में?