पर खुशी से फड़फड़ाते आज सारे गिद्ध देखो
फिर से उड़के दिल्ली जाते आज सारे गिद्ध देखो ॥१॥
रोज रोज खा रहे हैं नोच नोच भारती को
हड्डियों से घी बनाते आज सारे गिद्ध देखो ॥२॥
श्वान को सियासती गली के द्वार पे बिठाके
गर्म गोश्त मिल के खाते आज सारे गिद्ध देखो ॥३॥
आसमान से अकाल-बाढ़ देखते हैं और
लाशों का कफ़न चुराते आज सारे गिद्ध देखो ॥४॥
जल रहा चमन हवा में उड़ रहे हैं खाल, खून
इनकी दावतें उड़ाते आज सारे गिद्ध देखो ॥५॥
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
आज की व्यवस्था पर बहुत सटीक और सार्थक टिप्पणी..बहुत सुन्दर..
जवाब देंहटाएंसार्थक टिप्पणी..बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसार्थक पोस्ट सुन्दर अभिव्यक्ति,आभार......
जवाब देंहटाएंवाह क्या ग़ज़ल है धर्मेन्द्र भाई| आनंद आ गया पढ़ कर|
जवाब देंहटाएंहिंद युग्म प्रतियोगिता में पुरस्कृत होने के लिए बहुत बहुत बधाई.........
रोज रोज खा रहे हैं नोच नोच भारती को
जवाब देंहटाएंहड्डियों से घी बनाते आज सारे गिद्ध देखो ॥२॥
व्यवस्था पर गहरी चोट करती अच्छी गज़ल
वर्तमान सन्दर्भ में सटीक है. सुन्दर है. लीना मल्होत्रा
जवाब देंहटाएंwaah waah
जवाब देंहटाएंbahut khoob
achhi gazal !
कैलाश जी, अना जी, सुनील जी, नवीन भाई, संगीता जी, लीना जी एवं अलबेलाखत्री जी, रचना पसंद करने के लिए आप सबका बहुत बहुत धन्यवाद
जवाब देंहटाएंजल रहा चमन हवा में उड़ रहे हैं खाल, खून
जवाब देंहटाएंइनकी दावतें उड़ाते आज सारे गिद्ध देखो !
..
एक शानदार और कवि धर्म का निर्वाह करती हुई प्रस्तुति !
बधाई हो धर्मेन्द्र जी
aisi bevakoofi ki gazal likhkar apne ko shyar mat kaho moongfali becho voh theek rahega
जवाब देंहटाएंaisi bevakoofi ki gazal likhkar apne ko shyar mat kaho moongfali becho voh theek rahega
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